आखिर कब तक
पैरों के होते हुए भी
बैसाखी का सहारा
हास्यास्पद लगता है.
आखिर कब तक –
कुतर्कों के बल पर
हमारे स्वतंत्र कंधे
विदेशी भाषा का बोझ
ढोते रहेंगे.
मानसिक दासता को
लचर दलीलों की
परतों के नीचे
क्यों हम छुपाते रहेंगे.
संकीर्णता की सलीब पर
लटके हुए लोगों की
बीमार मानसिकता-
नारे और आन्दोलन से नहीं,
प्रतिबद्धता और संकल्पों से
बदल सकती है.
गरिमामयी और समृद्ध
हिन्दी भाषा को,
जाहिलों की भाषा कहकर
अपमानित करना
स्वयं का ही अपमान है.
और यदि हम –
अपने सम्मान के प्रति
वफादार नहीं,
तब निरर्थक है यह जीवन.
क्योंकि माँ को माँ कहने में
जिसे शर्म आती है,
उसे तो जन्म लेने का ही
अधिकार नहीं….
— विनोद प्रसाद