भाषा-साहित्य

हिन्दी हिन्दुस्तान की

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि अगर मुठ्ठी भर अंग्रेजी जानने वालों के लिए स्वराज हुआ है तब राजभाषा अवश्य अंग्रेजी हो। परन्तु यदि करोड़ों भूखे, निरक्षरों, दलितों एवं आमजन के लिए स्वराज हुआ है तब नि:संदेह राजभाषा हिन्दी ही होनी चाहिए। वस्तुत: स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिंदुस्तान जैसे बहुभाषी देश में राष्ट्रीय स्तर पर भावात्मक साम्य स्थापित करने के लिए एक संपर्क भाषा की अनिवार्यता महसूस की जा रही थी। भारत के संतों, ऋषियों, धर्म प्रचारकों, राजनेताओं एवं बुद्धिजीवियों ने घूम-घूम कर जिस हिन्दी में अपने उपदेश दिये, स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राष्ट्रभाषा के रूप में उसी हिन्दी के प्रचार-प्रसार ने इसके लिए सौहार्दपूर्ण वातावरण तैयार कर दिया। हिन्दी अपनी आंतरिक उर्जा, सार्वभौम लोकप्रियता तथा साहित्यकारों की सारस्वत साधना से विकासोन्मुख थी। हिन्दी का शक्तिशाली स्वरूप तथा व्यवहार की व्यापकता, इसकी शक्ति और क्षमता को प्रभावित करती रही थी। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था कि देश के सबसे बड़े भूभाग में बोली जाने वाली हिन्दी ही राजभाषा की अधिकारिणी है।

इसी संदर्भ में संविधान सभा के बाहर और भीतर काफी विचार-विमर्श के उपरांत 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में अंगीकृत कर लिया गया, जिसका समावेश भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343(1) में किया गया, जिसमें संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी हो गयी। लाल बहादुर शास्त्री के अनुसार देश को एकसूत्र में पिरोने वाली भाषा हिन्दी ही हो सकती है। हिन्दी पढ़ना और पढ़ाना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है।
भारत सरकार ने यद्यपि संविधान में हिन्दी को राजभाषा का प्रतिष्ठित पद दे दिया, पर यह हमारा दुर्भाग्य है कि आजादी के 72 वर्षों बाद भी हम अपनी राजभाषा को वह सम्मान नही दे सके जिसकी वह उत्तराधिकारिणी है। राजभाषा घोषित हो जाने के बावजूद हिन्दी को प्रतिष्ठापित करने के लिए हमें नारों और आंदोलनों का सहारा लेना पड़ता है। यह भागीरथ प्रयास तबतक पूर्ण नहीं हो सकता है जबतक प्रत्येक भारतवासी, चाहे वह किसी प्रांत का रहने वाला क्यों न हो, अपने मन से हिन्दी को अपना न ले। आज भी हम विदेशी भाषा की दासता के चंगुल से मुक्त नहीं हो सके हैं। यह किसी भी सच्चे देशवासी के लिए शर्म की बात है। हिन्दी का प्रचार और अंग्रेज़ी के प्रति आकर्षण पर ये पंक्तियाँ बरबस याद आती हैं-
“कमाल है, हिन्दुस्तान में हिन्दी का प्रचार  ?
रखैल करे मौज, ब्याहता लाचार…. “
आज आम जनता, यहाँ तक स्वयं को हिन्दी का पक्षधर कहलाने वाले तथा हिन्दी का झंडा उठाने वाले अधिकांश लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा दिलाना पसंद करते हैं। हम मोहन प्रसाद सिन्हा के स्थान पर एम.पी.सिन्हा कहलाने में अपनी शान समझते हैं। माँ की जगह मम्मी या माम और पिताजी के स्थान पर पापा या डैड कहलाने में बड़प्पन मानते हैं। देशरत्न डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि हमारी संतान के लिए मस्तिष्क की स्फूर्ति को बढ़ाने का उपाय मातृभाषा के अध्ययन से बढ़कर दूसरा नहीं है।
किसी भाषा के शब्दों को अपना लेने में शर्म की कोई बात नहीं। शर्म तो तब है जब अपनी राजभाषा के प्रचलित शब्दों को नहीं जानने के कारण या झूठी शान की खातिर हम दूसरी भाषा के शब्दों का प्रयोग करते हैं।
हिन्दी को ऐसी दयनीय स्थिति में लाने या रखने के लिए जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम स्वयं हैं, क्योंकि हमने जीवन के हर क्षेत्र में ऐसी स्थितियां पैदा कर दी हैं, जिनमें हिन्दी में शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों का भविष्य सुरक्षित नहीं है, और यही असुरक्षा की भावना वह मुख्य कारण है जिसकी वजह से हमें अपने बच्चों को अंग्रेजी की शिक्षा दिलवाने के लिए विवश होना पड़ता है। इस समस्या के समाधान के लिए यह जरूरी है कि हिन्दी का ज्ञान रखने वाले उम्मीदवारों को नौकरियों में प्राथमिकता दी जाये। प्रशासनिक सेवाओं और उच्च पदों पर हिंदी में कार्य करने वाले अधिकारियों को सम्मानित किया जाये। प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. रमन ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि यदि भारत में विज्ञान, अंग्रेजी के बजाय मातृभाषा के जरिए पढ़ाया गया होता तब भारत आज दुनिया के अग्रगण्य देशों में होता।
महान भारत देश की सौम्य संस्कृति की शालीनता हिन्दी में ही अत्यंत हार्दिक धरातल पर अवतरित हुयी है। साधु संतों का जीवन दर्शन हिंदी में देखा जा सकता है। उनकी मर्मस्पर्शी वाणी की झंकार इस ममतमयी मृदुल भाषा में सुनी जा सकती है। सूर, तुलसी, कबीर, मीरा, जायसी, रहीम, रसखान प्रभृति कवियों के सामासिक सांस्कृतिक सौंदर्य की अप्रतिम छटा हिन्दी में ही अपनी सम्पूर्ण श्रीसुषमा के साथ छविमान हुयी है। हिंदी साम्प्रदायिक सदभावना का प्रतीक है और यह राष्ट्रीय जीवन को सुदृढ़ एकता प्रदान करने वाली कड़ी है।
सरकारी प्रतिबद्धता की कमी एवं स्वार्थपरक राजनीति के कारण भी आज राजभाषा की खिल्ली उड़ायी जाती है। संसद में अभीतक राजभाषा के काम को राष्ट्रव्यापी आकार देने और सरकार के पूरे कार्याधिकार में हिन्दी को स्थापित करने के लिए केवल “साम” और “दाम” का ही सहारा लिया, दंड और भेद को अभी तक लागू नही लिया जा सका। यह ठीक है कि जनतांत्रिक प्रशासन व्यवस्था में जो लोग स्वेच्छा से हिन्दी में कार्य नहीं करते हैं उन्हें दंड नहीं दिया जाता, पर जो हिन्दी में कार्य करने वालों के मार्ग में रोड़े अटकाते हैं उन्हें अवश्य दंडित किया जाना चाहिए और पूरी कड़ाई व प्रतिबद्धता से हिन्दी का शत-प्रतिशत प्रयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिए। प्रलोभन/प्रोत्साहन की व्यवस्था ही समाप्त कर दी जाये और हिन्दी में कार्य करना पूर्णतया अनिवार्य कर दिया जाये।
हिन्दी के उत्थान की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार पर ही नहीं है बल्कि हिन्दी भषियों को भी अपनी विपरीत मानसिकता त्याग कर इच्छा शक्ति को दृढ़ता प्रदान करते हुए अपने दायित्व का निर्वहन करना होगा।
— विनोद प्रसाद

विनोद प्रसाद

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