ग़ज़ल
इस बार भी तो काटे गए आम बहुत हैं
हां, अपने लिए खाने को, इल्ज़ाम बहुत हैं
हमने ये कब कहा हमारा नाम बहुत है
बोला तो बोला इतना कि बदनाम बहुत हैं
वो काम के ही लोग हमें क्यों नहीं लगते!
जो कहते रहते हैं कि उनपे काम बहुत हैं
हम कहने में शरमाते हैं हम हैं बहुत ग़रीब
‘शो’ में जो मुफ़लिसी है उसके दाम बहुत हैं
सचको कहें अक्खड़ कि चापलूसी को विनम्र
कैसे कहें कि कहने पे इल्ज़ाम बहुत हैं
प्यासा हूं मैं कि ज़िंदगी ही मेरी प्यास है
दुनिया के पास भी तो ख़ाली जाम बहुत हैं
ये कैसे हुए, कब हुए, मैंने नहीं देखा
दुनिया पे यूं तो तो लड़ने को कुछ नाम, बहुत हैं
दानाईयों की दिलकशी पे लोग हैं फ़िदा
दीदा-दिलेरी जब तलक है काम बहुत हैं
— संजय ग्रोवर