ग़ज़ल
मेरी गजल के हर इक शेर में उजाला है
हर एक लफ्ज को मैंने लहू में ढाला है
गजल को कहना मेरे वास्ते इबादत है
कहीं ये शेरों में मस्जिद कहीं शिवाला है
महक उठेंगे मेरे शेर जिसको छूते ही
मेरी गजल में वो उन्वान आने वाला है
हृदय में राधा के हर वक्त कृष्ण रहते हैं
इसीलिए तो हृदय कामना का काला है
दिखाई देता नहीं है, न बात करता है
पर चारों ओर उसी का ही बोलबाला है
मैं सच उँगली पकड़कर ही शेर कहता हूँ
कि शायरी को मेरी ‘नूर’ ने सँवारा है
खड़ा हूँ ‘शान्त’ लुकाटी लिये सरे बाजार
किसी ने फिर से मेरा फलसफा उछाला है
— देवकी नन्दन ‘शान्त’