गर्मी के दिन आते ही बड़ी बहन की बाते याद आती है |बचपन मे गर्मियों की छुट्टियों मे नाना -नानी के यहां जाते ही थे।जो आजादी हमें नाना -नानी के यहाँ पर मिलती उसकी बात ही कुछ और रहती थी | दीदी बड़ी होने से उसका हमारे पर रोब रहता था हर बात समझाती एवं पढ़ाती भी थी | बड़ी दीदी होने के नाते हमें मानना पड़ती थी | सुबह -सुबह जब हम सोये रहते तब नानाजी बाजार से इमरती लाते और फूलों के गमलों की टहनियों पर इमरतियो को टांग देते थे | हमें उठाते और कहते देखों कि गमले मे लगे पौधो में इमरती लगी है। हमे उस समय इतनी भी समझ नहीं थी |दीदी ,नाना जी की बात को समझ जाती और चुप रहती |हम बन जाते एक नंबर के बेवकूफ |दीदी मुझे इमरती की खासियत के बारे में बताती |जलेबी,इमरती का अंतर हमें समझ में नहीं आता था |क्योकि हम बहुत छोटे थे |दीदी जब मुझे गाना सुनाती तो सुनकर जाने क्यों रोने लग जाता था | जब की उस गाने की मुझमे समझ भी नहीं थी | दीदी मेरी कमजोरी को समझ गई |मै जब भी मस्ती करता दीदी मुझे डाटने के बजाए गाना सुना देती और मैं रोने लग जाता | नाना -नानी अब नहीं रहे | आज मै हिंदी का प्राध्यापक बन गया|समय बीतता गया और हम भी बड़े हो गए मगर यादें बड़ी नहीं हो पाई | दीदी की शादी हो जाने से वो अब हमारे साथ नहीं है किन्तु बचपन में इमरती और गाना सुनाने बातें यादें तो याद आती ही है |और यादों में बचपन फिर ताजा होकर याद आता है |
— संजय वर्मा “दृष्टि”