स्कूल की जब होती छुट्टी
ऐसा लगता
मानों बगीचे में उड़ रही हो
रंग -बिरंगी तितलिया ।
तुतलाहट भरी मीठी बोली से
पुकारती अपने पापा को
पापा …
इतनी सारी नन्ही
रंग -बिरंगी तितलियों में
ढूंढने लग जाती
पिता की आंखें ।
मिलने पर उठा लेते
मुझको पापा अपनी गोद में
तब ऐसा महसूस होता
मानो दुनिया जीत ली हो
इस तरह रोज
जीत लेते मेरे पापा दुनिया ।
मेरी हर जिद को
पूरी करते पापा
मै जिद्दी भी इतनी नहीं हूँ
किन्तु जब मै रोती हूँ तो
पापा की आंखें रोती है ।
सच कहूँ ,यदि मै नहीं होती तो
मेरे पापा क्या जी पाते मेरे बिना
सोचती हूँ
बेटियाँ नहीं होती तो
उनके पापा कैसे जीते होंगे ?
बेटी के बिना ।
— संजय वर्मा “दृष्टि”