पिता परेशां, माँ न रोती ।
घर-आंगन गर बेटी होती ।।
गैरों के मोहताज न होते ,
गर अपने भी खेती होती ।
नामुमकिन में मुमकिन लेकिन,
कुछ उपजाऊ रेती होती ।
बेटियां अनमोल, अनुपम ,
जिनसे दो घर ज्योति होती ।
चिड़िया, कोयल और गिलहरी ,
सबके मन की बेटी होती ।
देव सभी, सुख हाजिर रहते,
आँगन गर एक तुलसी होती ।
अमन हमारी ‘संध्या’ ‘सूरज’
पल पल खुशी पिरोति, बोती ।
— मुकेश बोहरा अमन