मृत्यु का संदेश
जानते हो; आज आज प्रियवर!
मृत्यु का संदेश पाकर
खिलखिला कर हस पड़ी मैं स्वप्न में।
देखती हूँ; डूबता है सूर्य,
संध्या हो रही है,
आदमी काला खड़ा है
एक मेरे द्वार पर।
हाथ में काला लिफ़ाफ़ा,
और काले वस्त्र पहने,
नेत्र हैं जिसके रुधिर से,
पूछता है नाम मेरा गरज कर।
पूछता है वह; कि मैंने जिंदगी भर क्या किया है?
पूछता है वह; कि रिश्तों को कहाँ, कैसे जिया है?
पूछता है वह; कि धरती पर जिसे हैं प्रेम कहते,
क्या विधाता ने तुम्हें उस रंग से रंजित किया है?
पूछता है प्रश्न पर वह प्रश्न,
लेकिन शांत हूँ मैं,
शांत हूँ यह सोचकर;
कि जिंदगी भर क्या किया है ?
शांत हूँ यह सोचकर;
रिश्तों को कब, कैसे जिया है ?
शांत हूँ मैं प्रेम और परमात्मा के नाम पर भी,
शांत हूँ इंसान की देहात्मा के नाम पर भी।
शांत हूँ मैं; क्योंकि है मुझको पता
सत और मिथ्या
शांत हूँ मैं जान कर
अच्छाइयों की है सजा क्या।
मौत का वह दूत
मेरी शांति को स्कैन करके
और उस काले लिफ़ाफ़े पर वो मेरा नाम भरके
गौर से एकटक मुझे कुछ देर तक है देखता फिर
शांत होकर, प्यार से
मुझको थमाता है लिफ़ाफ़ा।
देखती हूँ उस लिफ़ाफ़े में रखा वह पत्र
जिसमें; था लिखा यह अंत है
अनुपम-अनूठी नाट्यकृति का
जिंदगी के इस अजब से मंच पर
अभिनय तुम्हारा
युग-युगों तक याद रखा जाएगा
यह तय हुआ है।
— नीरजा विष्णु ‘नीरू’