भोर तक उजालों के उपहार बांटती रही
पागल पवन से न घबराई दीपशिखा।
रुठे मन का अवसाद न जाने कहां खो गया
मेंहदी रचे हाथों ने जब जलाई दीपशिखा।
मन में नन्ही नन्हीं उमंगों के गीत लिये
चुपके चुपके गुनगुनाईं दीपशिखा।
ध्वनी प्रदूषण से कुछ सहमी मगर
फुलझड़ी के साथ झिलमिलाई दीपशिखा।
आंगन आगन सब सजाते हैं दीपशिखा
किसने मन में जलाई दीपशिखा।
सांझ ढले प्रकाश प्रियतम की याद आई
छत के कंगूरों पे जगमगाई दीपशिखा।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”