धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सांस्कृतिक अवमूल्यन चिंतनीय

भारत अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए ही विश्वप्रसिद्ध है। देश की आत्मा इसकी संस्कृति में निवास करती है कहा जाए तो कोई अतिशयक्ति नहीं होगी। “वसुधैव कुटुंबकम्” इसकी नींव है और सत्यमेव जयते इसका ध्येय वाक्य है। त्याग हमारी संस्कृति की सुगंध है । तेन त्यक्तेन भुंजिथा मा गृध कस्यस्वितधनम्। केवल भारतीय संकृति ही समस्त प्राणियों को समग्र दृष्टि से देखती है उसके कल्याण की बात करती है इसीलिए इसे सत्य सनातन भी कहते हैं। यह किसी पंथ विशेष की ओर संकेत नहीं करती अपितु मानव धर्म की बात करती है।
अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतषाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
और भी
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकार पुण्याय पापाय परपीडनम्।।
इतनी सुन्दर विचारों की वाहिका संवर्धिका भारतीय संस्कृति का ह्रासोन्मुख होना चिंतनीय है।
 निश्चितरुप से यह एक विचारणीय विषय ही नहीं चिंता का भी विषय है। जिस संस्कृति के बलबूते देश कभी विश्वगुरु का तमगा रखता था आज वह पाश्चात्य का मुखापेक्षी बनकर क्यों रह गया है ।
संस्कृति का शाब्दिक अर्थ लें तो इसका मतलब है परिष्कृति। यह मानव जीवन के निमित्त परिष्कृत पद्धतियों का ही दूसरा नाम है। भारतीय संस्कृति में शिष्ट उदारता तो है ही साथ ही इसमें ज्ञान-विज्ञान, लोक- आचार व्यवहार, धार्मिक आचरण और सामाजिकता का भी समावेश है।
इस संस्कृति की पहली विशेषता है यह शोधात्मक है। इसमें मनुष्यजीवन के लिए आवश्यक संस्कार निबद्ध हैं। षोडश संस्कारों का भी इसमें बहुत महत्व है। वर्तमान में केवल कुछ शेष रह गये हैं। नामकरण, अन्नप्राशन, उपनयन, विवाह आदि ही शेष रह गये हैं। वैदिक ऋषियों ने मनुष्य की आयु 100 वर्ष निर्धारत की है । जिसको चार बराबर भागों में विभाजित करते हुए 25 वर्ष विद्याध्ययन के लिए, अगला 25 वर्ष गृहस्थाश्रम के लिए। तत्पश्चाद् अगला 25 वर्ष वानप्रस्थ और अंत के 25 वर्ष संन्यासाश्रम हेतु निर्धारित किए हैं। इन आश्रमों के परिपालन में कुछ निर्देश हैं जिन्हें पालन करना आवश्यक है । यथा-वेदमनूच्यान्तेवासिनमाचार्योनुशास्ति। सत्यं वद, धर्मं चर , स्वाध्यायान्मा प्रमदः। मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव आदि । इस प्रकार की जहाॅ सामाजिक व्यवस्था हो उस देश में निरन्तर झूठ का बोलबाला होना माता- पिता को बोझ समझा जाना। आचार्य ( गुरु) को मारना -पीटना उनका निरादर करना कैसे सम्भव हो सकता है। यह तो दो ध्रुवीय बातों का आमेलन जैसा हो गया। हमारे धर्म ग्रंथों में सुकर्म करने का परामर्श है । इसके अतिरिक्त सब वर्जित है – यान्वद्यानि कर्माणि तानि त्वया उपास्यानि नो इतराणि। नारी तो भारतीय संस्कृति की प्रमुख अंग है । जिसे यहाॅ अर्धांगिनी कहा जाता है। यह उसके लिए सम्मान का सूचक है। सभी शुभकर्मों में उसकी उपस्थिति श्लाघनीय रही है। सतीत्व भारतीय नारी का उदात्त गुण है। नारी के सन्दर्भ में एक श्लोक सदा से ही चर्चित रहा है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैता न पूज्यन्ते सर्वास्तस्याफला क्रियाः।।
नारी का सम्मान जितना भारतीय संस्कृति में दृष्टिगोचर होता है उतना इतर संस्कृतियों में नहीं। मुस्लिमसंस्कृति में नारी की स्थिति एक प्रकार से नगण्य है।
भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण ध्येय है ’पुरुषार्थचतुष्टय’ अर्थात् धर्म -अर्थ -काम व मोक्ष । धर्म का अनुसरण करना तदनुरुप धनार्जन । धनार्जन पश्चात् इच्छाओं की पूर्ति। अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष माना गया है। इसके लिए इसी जन्म में प्रयास करना होता है ताकि जन्म -मृत्यु के बन्धन से मुक्त हुआ जा सके । ज्ञातव्य हो कि भारतीय संस्कृति पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करती है। कुछ लोग इन सब के आधार पर भारतीय संस्कृति को पलायनवादी कहते हैं। यह मिथ्या प्रचार है।इसका खण्डन इन श्रुति वाक्यों से हो जाएगा-
 ’जीवेम शरदः शतम्। पश्येम शरदः शतम्। श्रृणुयाम् शरदः शतम् अदीनाः स्याम शरदः शतम्’
इन वाक्यों में आयु स्वास्थ्य सौन्दर्य के साथ धन की कामना संनिहित है।
भारतीय संस्कृति में ज्ञानविज्ञान की प्रचुर उपलब्धता है। और इसके स्रोत हैं वेद । वेद की यह बौद्धिक सम्पदा शिक्षा कल्प निरुक्त छंद ज्योतिष और व्याकरण इन छ: रुपों में विभक्त है। इन अपार बौद्धिक सम्पदाओं के बल पर ही भारत को जगद्गुरु कहा जाता रहा ।
विश्व की उत्पत्ति परमाणुओं से हुई। सर्वप्रथम यह डिम्डिम घोष कणाद मुनि ने की थी। द्रव्य का विनाश नहीं होता केवल स्वरुप बदलता है यह बात भी भारतीयों ने सिद्ध की थी। इसे आधुनिक वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं।
परमार्थ चिन्तन में तो भारतीय संस्कृति अद्वितीय है। ब्रह्मविषयक चिंतन का वेद उपनिषद आदि में विस्तृत निरूपण प्राप्त होता है। विश्व में प्रसारित द्वैतवाद अद्वैतवाद के साथ नास्तिक वाद का भी उल्लेख इन्हीं ग्रंथों में समाहित है। इन ग्रंथों में चार्वाक जैसे भौतिकवाद को स्वीकार करने वाले विचार भी मिल जाएंगे यथा –
’शरीरमेवात्मा भौतिकमेवानन्द पर्यायः देहावसान एव मोक्षः भवति न क्वापि पुनर्जन्म भवति’
बौद्धधर्म के विचार भी हैं। जैन धर्म के भी। जैनधर्म के विचार ऋग्वेद के नासदीयसूक्त में उपलब्ध होते हैं। पारसिक धर्म के प्रवर्तक जरस्थु की अग्नि उपासना भी वैदिक ही है। वेदों में अग्नि को पुरोहित की संज्ञा दी गयी है।इस कारण सर्वप्रथम उनकी पूजा की जाती है।
’’अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजं। होतारं रत्नधातम्।।’’
       ईसाइयों के अहिंसावादी मत का मूल भी भारतीय ग्रंथ हैं। महावीर- गौतम के अहिंसा परमोधर्मः का प्रचार हो चुका है। इस्लाम का एकेश्वरवाद ’एकोदेवो सर्वभूतेषु निगूढ़’ में निहित है। भारतीय संस्कृति का मुख्य आधार स्तम्भ मनुस्मृति है। प्राचीन भारत की यह एक सामाजिक व्यवस्था है। चाणक्यनीति तथा अर्थशास्त्र रामायण व महाभारत जैसे ग्रंथ हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। अनेकता में एकता के सम्बोधक हैं । महाभारत का विस्तार इतना सुदीर्घ है कि इसे पंचम वेद भी कहा जाता है। सब कुछ यहां सुप्राप्य है।
“यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचिद् “। फिर भी हमारी संस्कृति का दिन प्रति ह्रास होना चिंतनीय है।
         पृथ्वीराज चौहान के पराजय पश्चाद् यहाॅ यवनों, हूणों, शकों और अंग्रेजों आदि का लम्बे समय तक शासन स्थापित हो गया। विदेशी आक्रमणकारियों ने यहाॅ की संस्कृति को विनष्ट करना शुरु किया। उनका मानना था कि इसे विनष्ट किए बिना भारत पर लम्बे समय तक शासन कर पाना मुश्किल होगा। बलात् धर्म परिवर्तन किए ग्रे । हिंसा का नग्न ताण्डव आरम्भ हुआ। लोभ दिए गये। पाठ्यक्रम में परिवर्तन हुआ । उर्दू- फारसी- अंग्रेजी आदि भाषाओं को बढ़ावा दिया जाने लगा। भारतीय संस्कृति की पोषक संस्कृत जैसी संस्कारित भाषा एक प्रकार से दूर होती चली गयी। ग्रंथों और पुस्तकालयों को जला दिया गया ।
सबसे बड़ा नुकसान स्त्रियों तथा उनकी शिक्षा का हुआ। वे परदे के अन्दर रहने हेतु विवश हुयीं।
भारतीय संस्कृति धर्मप्राधान्य है-कहा भी गया है- ” धर्मेणहीनाः पशुभिः समानाः”
यहाॅ धर्म का अर्थ किसी सम्प्रदाय विशेष का चिह्निकरण नहीं अपितु जगत कल्याण के मूलतत्वों की व्याख्या ही धर्म है। पाश्चात्य संस्कृति उपभोगवादी है। जबकि भारतीय संस्कृति में त्याग सर्वोपरि।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचिज्जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।
दोनों संस्कृतियां एक दूसरे के विपरीत। हमारे यहाॅ पर स्त्रियों को माता के समान तथा दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले की तरह देखने की बात कही गयी है-
” मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् ’’
भारतीय संस्कृति किसी काल विशेष के लिए नहीं अपितु सार्वकालिक है। अभी विश्व कोरोना नामक महामारी से जूझ रहा है। इस समय में पाश्चात्य देशों ने हमारी संस्कृति को सराहा है । दूर से हाथ जोड़कर अभिवादन , बाहर से आने पर हस्त-पाद प्रक्षालन, दाह संस्कार से लौटने पर स्नान आदि सूतक लगने पर 12-14 दिन पृथकवास करना यह सब पहले से ही था। जिसे अपनाने हेतु आज विश्व स्वास्थ्य संगठन अपील कर रहा है।निष्कर्ष यह कि भारतीय संस्कृति पूर्णतः वैज्ञानिक है।
         बीसवीं सदी में चलचित्र का पदार्पण भी भारतीय संस्कृति को क्षति पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा। यह क्रम अब भी चल रहा है। मंदिर के प्रांगण में प्रेम का अंकुरण दिखाया जाना नायक -नायिका का वहाॅ मिलना- जुलना दिखाना हमारी संस्कृति को भ्रष्ट करने का ही उपक्रम है। काम मनुष्य की स्वभावगत कमजोरी है। इस मनोविज्ञान का खूब लाभ उठाया फिल्म जगत ने। प्रत्येक फिल्म का मुख्य विषय प्रेम होता है। उनके लिए प्रेम जैसा सात्विक भाव मात्र अंग-प्रदर्शन भर है। कामुकता को ही वे प्रेम की संज्ञा देते है। उनके लिए प्रेम यानि स्त्रीदेह का प्रचार। विज्ञापन भी यही कर कर रहे हैं। युवा पीढ़ी इस मकड़ जाल में दिनोंदिन उलझती जा रही है। इस प्रकार की फिल्में परिवार के साथ बैठकर देखने योग्य भी नहीं होतीं। फिल्मों की नकल आज गाॅव- गाॅव, शहर -शहर हो रहा है। अब तो फिल्मी धुनों पर भक्तिगीत भी गाए जाने लगे हैं। फिल्म जगत ने संदेशप्रद फिल्में कम अश्लील अधिक बनायी जाने लगीं हैं। जिसका दुष्परिणाम सड़क संस्कृति में दिखायी देता है। स्कूल जाती लड़कियों को देखकर सीटी बजाना, छेड़छाड़ करना आदि फिल्मी अंदाज हैं। कई अपराधियों ने पकड़े जाने के पश्चाद् यह स्वीकार किया कि यह तरकीब फिल्म से नकल की थी।
       नित बढ़ती आबादी के साथ संसाधन कम होते जा रहे हैं। लोगों में संग्रह की भावना बलवती हो रही है। यहाॅ तक की सम्पत्ति के लिए रिश्तों की हत्या करने लग गये हैं। उस समय उनके मन- मस्तिष्क से राम और भरत का चरित्र विलुप्त हो जाता है। सम्पत्ति विभाजन के साथ ही माता-पिता का भी विभाजन एक परम्परा-सी होने लगी है। परिवार की परिभाषा पति- पत्नी और औरस पुत्र पुत्रियों तक ही रह गयी है। माता- पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ना पाश्चात्य सभ्यता में होता था भारत में भी होने लगा।
एकल परिवार की अवधारणा से भी बच्चों में सुसंस्कार विकसित नहीं हो रहे। नाना -नानी , दादा -दादी जो सोते समय कहानियाॅ सुनाया करते थे वे सब वृत्तांत स्वयं एक कहानी भर रह गये हैं।
— मोती प्रसाद साहू

मोती प्रसाद साहू

जन्म -1963 वाराणसी एक कविता संग्रह-पहचान क्या है प्रकाशित विभिन्न दैनिक पत्र-पत्रिकाओं ;ई0 पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन संपर्क 9411703669 राजकीय इण्टर कालेज हवालबाग अल्मोड़ा उ0ख0 263636 ई0 मेल- [email protected]