राजनीति

न्याय-व्यवस्थाः सुधार के संकेत

सर्वोच्च न्यायालय में आए एक ताजा मामले ने हमारी न्याय-व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है लेकिन उसने देश के सारे न्यायालयों को नया रास्ता भी दिखा दिया है। हमारी बड़ी अदालत में 1965 में डाॅ. राममनोहर लोहिया ने अंग्रेजी का बहिष्कार करके हिंदी में बोलने की कोशिश की थी लेकिन कल शंकरलाल शर्मा नामक एक व्यक्ति ने अपना मामला जैसे ही हिंदी में उठाया, सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों ने कहा कि वे हिंदी नहीं समझते। उनमें से एक जज मलयाली के एम. जोजफ थे और दूसरे थे बंगाली ऋषिकेश राय। उनका हिंदी नहीं समझना तो स्वाभाविक था और क्षम्य भी है लेकिन कई हिंदी भाषी जज भी ऐसे हैं, जो अपने मुवक्किलों और वकीलों को हिंदी में बहस नहीं करने देते हैं। उनकी भी यह मजबूरी मानी जा सकती है, क्योंकि उनकी सारी कानून की पढ़ाई-लिखाई अंग्रेजी में होती रही है। उन्हें नौकरियां भी अंग्रेजी के जरिए ही मिलती हैं और सारा काम-काज भी वे अंग्रेजी में ही करते रहते हैं। संविधान ने हिंदी को राजभाषा का नकली ताज पहना रखा है और कई अन्य भारतीय भाषाओं को भी मान्यता दे रखी है लेकिन इस ताज और इन भाषाओं को आज तक मस्तक पर धारण करवाने की हिम्मत कोई सरकार नहीं कर सकी है।

देश की छोटी-मोटी अदालतों में तो फिर भी यदा-कदा हिंदी में बहस की इजाजत मिल जाती है लेकिन एक-दो अपवादों को छोड़कर सभी फैसले अंग्रेजी में होते हैं। जिन लोगों को आजन्म कैद और फांसी की सजा हो जाती है, उन बेचारों को भी यह पता नहीं चलता कि उनके वकील ने उनके पक्ष में क्या कहा है और जो फैसला आया है, उसमें जजों ने किस आधार पर उन्हें दंडित किया है। यह कैसा न्याय है? इसके अलावा विदेशी भाषा में चली बहसें और फैसले बरसों-बरस खा जाते हैं। वकील और जज कई बार सिर्फ शब्दों की खाल उधेड़ते रहते हैं। भारत जैसे लगभग सभी पूर्व-गुलाम देशों का यही हाल है लेकिन बड़े संतोष का विषय यह है कि उक्त मुद्दे पर मलयाली और बंगाली जजों ने बड़ी उदारता और व्यावहारिकता दिखाई। उन्होंने वादी शर्मा को एक अनुवादक वकील दिलवा दिया, जो बिना फीस लिए ही उनकी हिंदी बहस का अंग्रेजी अनुवाद जजों को सुना रहा था और जजों व शर्मा के बीच सोलिसिटर जनरल माध्वी दीवान भी आकर अनुवाद कर रही थीं।

जब तक भारत की इस औपनिवेशिक न्याय व्यवस्था का भारतीयकरण नहीं होता, यदि अनुवाद की उक्त सुविधा भी सभी अदालतों में शुरु हो जाए तो भारत की न्याय व्यवस्था अधिक पारदर्शी, अधिक जनसुलभ और अधिक ठगीरहित बन सकती है।

— डॉ. वेदप्रताप वैदिक

(साभार – वैश्विक हिंदी सम्मेलन)