सम्पन्न दुनिया
माँ अपनी अटैची में कपड़े ठूँसते हुए बोली-“चल बेटा, अपने पुराने मुहल्ले में। मुझे अब यहाँ नहीं रहना।”
“क्यों माँ! तुम्हें तो यहाँ की हरियाली, फलदार पेड़ और उस पर चहकते पक्षी, सुगन्ध बिखराते फूल तो बड़े ही भाये थे। छोटे से पाण्ड में बत्तखों को देखकर कैसे तुम बच्चों-सी मचल गयी थी।”
“हाँ, लेकिन..”
“जानती हो माँ, तुम्हें इस तरह से खुश देखकर पहली बार लगा था कि मैं पापा की जगह खड़ा हूँ, अपनी नौकरी की रकम से इस सोसायटी में तुम्हारे लिए छोटा-सा फ्लैट लेकर मैंने कोई गलती नहीं की है।”
“नहीं मेरे लाड़ले, तूने कोई गलती नहीं की। लेकिन…”
“माँ तुम्हें याद है! पवनचक्की को देखकर तुमने कहा था कि चल अच्छा है यहाँ ये भी है, गर्मी में बिन पंखे के भी नहीं रहना पड़ेगा। फिर आज ऐसा क्या हुआ..?”
“बेटा ! सब कुछ है, किंतु यहाँ इंसान नहीं हैं..!”
“हा.. हा.. हा..! क्या माँ! यहाँ हजारों लोग रहते हैं, बस तुम्हें दिखते नहीं होंगे। पार्क में बैठने की तुम्हारी और उनकी टाइमिंग एक नहीं होगी न!”
“नहीं बेटा! टाइमिंग तो एक ही है परन्तु उनमें इंसानियत नहीं है, सब रोबोटिक्स हैं! तू लेकर चल मुझे उसी पुराने मुहल्ले में, जहाँ एक दूसरे का दुख-दर्द पूछने वाले ढेरों इंसान रहते हैं।”
— सविता मिश्रा ‘अक्षजा’