लघुकथा

प्रखर ज्योत

मास्टर रामकिशुन काफी तमतमाए हुए तेज तेज कदमों से स्कूल प्रांगण में मुख्याध्यापक के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे कि तभी उनके कड़े तेवर को देख उनके सहशिक्षक गुप्ताजी ने उन्हें आवाज लगाई, “अरे शर्माजी, कोई बात हुई क्या ? बड़े रोष में लग रहे हो।”
“हाँ, अपना त्यागपत्र सौंपने जा रहा हूँ, मुख्याध्यापक महोदय को।”
“क्यों भला ? ऐसी क्या बात हो गई ?”
“अरे वो तुमने पढ़ा नहीं क्या प्रशासन की तरफ से जो नया फरमान जारी हुआ है, हम दस शिक्षकों के लिए ?”
“नहीं तो ? ऐसा क्या है उस फरमान में ?”
“अयोध्या में सरयू तट पर संपन्न सफल दीपोत्सव आयोजन के बाद उसी तर्ज पर देवदीपावली के दिन गंगा घाट पर साढ़े तीन लाख दीये प्रज्वलित करने की जिम्मेदारी हम दस शिक्षकों को सौंपी है।
 प्रशासन पता नहीं हमें क्या समझता है ? लोकतंत्र का विशेष उत्सव होने के नाते चुनाव कर्मचारी की भूमिका तो हम खुशी खुशी निभा लेते हैं, जनगणना व अन्य सर्वेक्षण के कार्य भी हम कर ही लेते हैं, लेकिन क्या हम बेगारी हैं जो अब दीये प्रज्वलित करने का जिम्मा भी हम ही उठाएं ? पता नहीं प्रशासन कब समझेगा कि घाटों पर दीये जलाकर देशभर में व्याप्त निराशा के अँधियारे को दूर नहीं किया जा सकता। क्या दीये की ज्योति ज्ञान के प्रकाश से प्रखर और तेज है ?”

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।