प्रत्येक वर्ष 21 मार्च 2003 से कठपुतली दिवस मनाना शरू हुआ। विश्व कठपुतली दिवस भी मनाया जाता है।कठपुतली कला में पुरुष,स्त्री,पक्षी,जानवर आदि के पात्रों का रूप तैयार कर दैनिक जीवन एवं समाज के अनेकानेक प्रसंगों का मंच पर संगीत संवाद के जरिए प्रस्तुति दी जाती है।काष्ठ से निर्मित होने से कठपुतली शब्द कहा जाता है।भले ही दौर बदलता रहता हो लेकिन कला-संस्कृति हमेशा जिंदा रहती है। ऐसी ही एक पारंपरिक कला है कठपुतली। इस कला को जिंदा रखने वाले और समय के साथ इसे और प्रासंगिक बनाने के लिए लगातार काम करने वाले अभी भी कई इंसान है जो इसे अपनी कला का शोक मानते आरहे है।एक जानकारी के मुताबिक वियतनाम के हनोई शहर में एक थिएटर है जिसमे वाटर पपेट शो होता है।वैसे तो कठपुतली की परंपरा काफी पुरानी है लेकिन इस थिएटर में पानी मे पपेट शो दिखाया जाता है। थिएटर शहर के मध्य में है और दिन भर में इसके कई शो दिखाए जाते है, प्रत्येक शो एक घंटे का होता है। खास बात यह है यह शो एशिया बुक ऑफ रिकॉर्ड में भी दर्ज है।विदेशों में पपेट (कठपुतली )कला ज्यादा पसंद की जा रही है ,धागों से पुतले पुतलियों को नचाने की कला के सभी दीवाने है।पहले स्कूलों में कठपुतली शो भी मनोरंजन बतौर करवाए जाते थे।उदयपुर राजस्थान में कठपुतली कला केंद्र है |सोशल मीडिया पर पुराने वीडियो को लोग काफी पसंद कर रहे है। कठपुतली शीर्षक पर फ़िल्म भी बन चुकी है।फिल्मों के गीतों में भी कठपुतली शब्द आया है।जैसे बोल री कठपुतली तेरा…।देखा जाए तो वर्तमान में कठपुतली कला विलुप्ति की कगार पर जा पहुंची। कठपुतली कला में गायन,अभिनय, धागों का सामजस्य आदि समाहित रहता है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सीखने की कला प्रदान होती रहती थी।नृत्य ,गायन,कहानी इसमें समाहित रहती है जो जीवंत अभिनय को प्रस्तुत करती है | धागो और कठपुतली के ऐसा सामजस्य की लोग प्रदर्शन देख दातों तले अंगुली दबा लेते थे |इस प्रकार मनोरंजन की कला और भी है जो विलुप्ति की कगार पर धीरे धीरे पहुँच रही है।धागों पर आधारित कठपुतली कला धीरे धीरे इलेक्ट्रॉनिक युग में खो सी गई।जो कभी कम पैसों में मनोरंजन देती थी|इसको बढ़ावा देने की आवश्यकता है |