ग़ज़ल
सुनो पहले, विचारो बाद में, देखो, न कुछ बोलो
अगर है लाजमी कुछ बोलना, शब्दों में रस घोलो
बस इतनी देर से अल्फाज तुमको ढूँढ़ ही लेंगे
फिर इसके बाद तोड़ो मौन या फिर मौन के हो लो
प्रकृति सब छीन लेती है कभी संचय नहीं करना
उसी पल उसको लौटा दो किसी से भी कभी जो लो
हृदय के दाग धुल जाते हैं, हो जाता है मन हल्का
कभी घबराये दिल तो शौक से जी भर स्वयं रो लो
निपट जाये हिसाबे दिन कभी जो रात के पहले
बड़े ही भाग्यशाली हो उसे निपटा के झट सो लो
बहुत से लोग सारी उम्र बेहोशी में जीते हैं
तुम्हें दुनिया में कुछ करना है तो उट्ठो सजग हो लो
हमारा ‘शान्त’ आशय सिर्फ इतना है कि टूटे मौन
सभी बातें नहीं सम्भव, कम से कम एक-दो तो लो
— देवकी नन्दन ‘शान्त’