जहांँ नारी की पूजा की जाती है वहांँ देवता निवास करते हैं पर क्या सच में हमारा देश नारी की सच्चे मन से पूजा करते हैं? क्या नारी को वह दर्जा हासिल है जिसकी वह हकदार है? सदियों की ब्रेनवाशिंग से स्त्रियाँ यही मानने लगी है कि वह पुरुषों से कमतर है और यही सोच अपनी अगली पीढ़ी तक पहुंँचाने में वह दरोगा का काम करती है। मांँ अपनी बेटी को घुट्टी पिला देती है कि उसका भाई लड़का होने के कारण श्रेष्ठ है! यह सिलसिला आखिर कब तक चलता रहेगा? क्या कभी स्त्री को उसको वह उचित स्थान मिल पाएगा जिसकी वह अधिकारी है?
हम बड़ी शान के साथ कहते हैं कि हमारे प्राचीन भारत में स्त्रियों को उचित स्थान प्राप्त था लेकिन आज प्राचीन काल की उन स्त्रियों से आज की स्त्रियों की तुलना की जाती है। पुत्र प्राप्ति के लिए किए गए अनेक यज्ञो का जगह-जगह वर्णन किया जाता है कन्या प्राप्ति के लिए कोई यज्ञ नहीं होता। हर नवविवाहिता ‘पुत्रवती भव’ का आशीर्वाद पाती है ‘संतानवती भव’ का नहीं! “कन्यावती भव” तो सुनकर ही शायद आपको अजीब लगे। जहांँ पुरुषों को दीर्घायु स्वास्थ्य का आशीर्वाद दिया जाता है वही स्त्रियाँ लंबे सुहाग का आशीर्वाद पाती है। बड़े ही गर्व के साथ कहा जाता है कि प्राचीन काल में लड़कियों को अपना वर स्वयं चुनने का अधिकार था पर क्या सचमुच था ऐसा स्वयंवर? ऐसे भ्रामक शब्द आपको शब्दकोश में दूसरा नहीं मिलेगा सीता जी को पाने के लिए राम जी ने शिव धनुष तोड़ा सीता उनके गले में वरमाला डाल दी, यदि राम की जगह रावण ने धनुष तोड़ा होता तो? कम शक्तिशाली तो नहीं था। नीचे रखे तेल में ऊपर गोल घूमती मछली का प्रतिबिंब देख उसकी आंख को वाण से भेदना यह शर्त थी द्रौपदी के स्वयंवर की। प्राचीन काल में जो स्वयंवर होते थे वह भी अपने पिता द्वारा तय किए हुए होते थे, उन लड़कियों की स्वयं की इच्छा कहांँ होती थी तो फिर कैसे स्वयंवर हुआ? स्वयंवर के नाम पर कुंँवारी कन्याएँ भेंट की जाती थी। इसी तरह द्रोपदी के लिए भी कितना कठिन रहा होगा जब उसे पांँच पुरुषों में बांँटा गया होगा। पुरुष प्रधान समाज ने भारतीय स्त्रियों के सामने सीता का आदर्श रखा है जिसका खामियाजा वह आज तक भुगत रही है। सीता तमाम उम्र अपने पति की परछाई बनकर रह गई, उनके वनगमन पर सब सुख त्याग सहर्ष वनों में चली गई, लेकिन बदले में सीता को क्या मिला? केवल पवित्रता सिद्ध करने की मांग रखी गई और अपने पति की आज्ञा शिरोधार्य करके बिना किसी शिकायत के धरती में समा गई। पति की मृत्यु होने पर पत्नी को सती होने का रास्ता दिखाया गया और उनके दिमाग को समाज के उन वर्गों ने इतना ब्रेनवाशिंग किया कि वह अपने पति की मृत्यु के बाद तुरंत सती हो जाया करती थी। आखिर पुरुषों के लिए यही आदर्श क्यों नहीं रखा? कम से कम पुरुष अपनी एक उंगली का हिस्सा आग में जलाकर देखते! एक जीवित स्त्री को आग में बैगन की तरह भून देने में इन्हें जरा सा भी संकोच नहीं हुआ!
हमारे धर्म में स्त्री को दो दर्जे पर ही रखा गया वह अपवित्र नर्क का द्वार एवं मोक्ष प्राप्त करने की सबसे बड़ी रुकावट है। अतः मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक साधु-संतों को उसकी छाया मात्र से दूर रहने को कहा गया है यह कहीं नहीं बताया गया कि यदि स्त्री मोक्ष प्राप्त करना चाहें तो वह क्या करें? इसके विपरीत स्त्री की स्वर्गीय प्राप्ति के लिए पति सेवा ही एकमात्र उपाय सुझाया गया है चाहे पति दुराचारी और शराबी कैसा भी क्यों ना हो परमेश्वर मानकर उनकी पूजा करें और यदि किसी कारणवश पति की असमय मृत्यु हो जाती है तो उसे अपशकुनी कहकर मंगल कार्यो से दूर रहने की अपेक्षा की जाती है। बेटी की शादी करना गृहस्थ का धर्म माना जाता है जिस समाज ने बेटी के हाथ पीले करना अनिवार्य बनाया उसी समाज ने यह गारंटी क्यों नहीं ली कि बेटी को उसके ससुराल में सताया नहीं जाएगा। समाज के कर्ता-धर्ता इसे लड़की का भाग्य कहकर हाथ झाड़ लेते हैं जब वह हिंसा का शिकार होती है। वैवाहिक अनुष्ठान समाजिक ना होकर एक धार्मिक है कन्यादान के रूप में पिता आज भी अपनी बेटी को दान स्वरूप उसके पति को भेंट करता है, दान में पाई जाने वाली वस्तु का तो पाने वाला जैसा चाहे उपयोग करें मारे पीटे अथवा दहेज के लालच में जिंदा जला डाले उसके लिए इतनी हाय तौबा क्यों?? समाज में जो प्रधान बने हैं उसमें स्त्री को अबला और असहाय मानकर उसे पति के संरक्षण में रहने की सलाह दी जाती है और कई जगह पति की मृत्यु होने पर पुनर्विवाह भी नहीं किया जाता और उसे अकेले छोड़ दिया जाता है अपने बच्चों के लालन पोषण करने के लिए एक ऐसे समाज में, जहांँ नर वेश में भेड़िए ही अधिक है उसे नोचने के लिए। लड़का-लड़की में भेदभाव को लेकर स्त्रियों की सदियों से ब्रेनवाशिंग की जाती रही है उन्हें यह एहसास कराया जाता है कि पुरुष श्रेष्ठ है और पति के दीर्घायु के लिए व्रत उपवास करने से वह सौभाग्यशाली बनी रहेगी और सास इस बात की निगरानी रखती है इन सब का कड़ाई के साथ पालन हो। पति के चरण छूना उसके पांँव की धूल सिर माथे लगाना यह किसी गांँव देहात का चित्र नहीं संभ्रांत समाज की महिलाओं का है। नारी का स्थान आज भी कहीं ना कहीं अपना स्थान पाने के लिए बेबस और लाचार है नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: यह सिर्फ कहने की बातें हैं।
— पूजा गुप्ता