धूल
“स्नान-ध्यान में कुछ ज्यादा ही देर हो गई आपको!”, धूप में बाल सुखाता देख पड़ोसन से पूछा।
“हाँ! संक्रांति के पहले की कुछ विशेष साफ-सफाई में उलझ गई थी। खिड़कियाँ बंद कर घर को कुछ हद तक बचा भी लें हम, पर उनके ग्रिल धूल से अँट जाते हैं। हवा में धूल कण दिनोंदिन बढ़ते ही जा रहे हैं।”
“सच है।”
”पर संदर्भ में अक्सर फैक्ट्रियों-गाड़ियों का धुँआ, पराली जलाना इन्हीं की बातें होती है। एक अन्य मुद्दा है, जिस पर लोगों का ध्यान कम जाता है, निर्माण कार्यों से हवा में घुलते जाते सीमेंट और रेती कण।”
“पर बिना रैन बसेरे के इंसान रहेगा कहाँ? पुल ,सड़कें, मेट्रो इत्यादि का निर्माण मानवीय तरक्की के लिए आवश्यक है।”
“पर कुछ अनावश्यक भी है, जैसे घर बनाने का व्यसन। इंसान फ्लैट के बाद घर, फिर घर की दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवी, छठी मंजिल बनाने लगता है! बहाना, ‘संतति का सुरक्षित भविष्य।’ वश चले तो मानो स्वर्ग तक सीढ़ियाँ बनवा दें , ताकि सशरीर स्वर्ग की सैर की जा सके। घर के बाद फार्महाउस बने तो अधिक बढ़िया। कुछ लोग बिल्डर बनकर पच्चीस-पचास मंजिली इमारत ठोक देते हैं।पर जो बनाया, उसका रख-रखाव भी लगेगा।
‘भाड़ा लगाकर पैसे आएँगे तो रख-रखाव होता रहेगा’, सोचते हैं। पर कोरोना के बाद से लोग, सस्ता भाड़े का मकान तलाश कर रहे हैं ; क्योंकि, ‘मंदी में हाथ तंग हैं।’ अक्सर लोग आसान किस्तों में फ्लैट खरीदने के चक्करों में लगे रहते है, ‘भाड़ा ही क्यों दें?’ पर आवश्यक हो या अनावश्यक,इन निर्माण कार्यों से महीन सीमेंट और रेती हवा में घुलती जाती है।”
“आपका नजरिया स्पष्ट भी है,सही भी। सरकार के नये नियमानुसार निर्माण स्थल को तथा सीमेंट-रेती को ढोते समय ढँकना आवश्यक हो गया है। पर अनावश्यक निर्माण कार्य क्या है, हमें ही तय करना होगा।”पड़ोसन सहमत थी।
— नीना सिन्हा