बरगद की विशाल शाखाओं जैसी,
अपनी बाँहे फैलाए ।
ख़ड़े रहकर धूप और छाँव में,
हर मौसम की मार झेल जाये ।।
कोई और नहीं , एक पिता ही हो सकता है।
कठोर भाव, पर अव्यक्त प्रेम का आसन ।
सख्ती से चलनें वाला परिवार का अनुशासन ।।
संबल, शक्ति, संस्कारों की मूर्ति ।
परिवार के सभी इच्छाओं की पूर्ति ।।
कोई और नही, एक पिता ही हो सकता है।
बिन कहे जो बच्चों का अरमान भांप ले ।
बाँहे फैलाये तो सारा आसमान नाप ले ।।
थरथराते, काँपते, नन्हे पँखों को ।
उड़ान का हौसला देनें वाला ।।
कोई और नही, एक पिता ही हो सकता है।
न जानें अपने अंदर कितनें मर्म छुपाये ।
दिल में आह हो, तो भी मुस्कुराये ।।
अपनी ख्वाहिशों की चिता से ,
घर को रौशन करनें वाला ।
कोई और नहीं, एक पिता ही हो सकता है।
ईश्वर की अद्भुत रचना,
जो ईश्वर का ही रुप लगता है ।
गढ़ता है जो अपनें बच्चे को ,
संस्कार,विचार, व्यवहार देकर ।
कोई और नही ,एक पिता ही हो सकता है।
— उषाकिरण निर्मलकर