“…हूँ…हूँ …हूँ …हूँ ….देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए… दूर तक निगाह में हैं गुल खिले हुए…. ये गिला है आपके निगाहों से, फूल भी हो दरमियाँ तो फासले हुए…” तकिए को बिस्तर पर जमाते हुए रेडियो के चित्रपट संगीत कार्यक्रम में चल रहे गीत को गुनगुना रही थी। “…तभी तेरी आवाज है हवाओं में… प्यार का रंग है फिजा़ओं में…” गुनगुनाते हुए शशांक कमरे में दाखिल हुआ। गौरवर्ण पतली बेल सी कमर पर दोनों हाथों की तर्जनियों के चलते ही सुरभि खिलखिला उठी। मुड़कर देखते ही शशांक ने सुरभि को अपने बाहों में भर लिया। फिर वेंटिलेटर से झाँकती रवि की किरणें सुरभि के मुखमंडल पर पड़ते ही ऐसा लगा, जैसे पचासों सूरजमुखी के फूल एक साथ खिल गए हों। फिर क्या सुरभि ने भी शशांक को छेड़ना नहीं छोड़ा। एक ठहाके की गूँज से बैडरूम भर गया।
शशांक अंग्रेजी के व्याख्याता थे; और सुरभि जूलाॅजी के। दोनों एक ही ब्लॉक के स्कूलों में पदस्थ थे। लगभग साल भर हुआ था दोनों की शादी हुए। शीतकालीन अवकाश में घर आए थे।
आज दोपहर को शशांक ने अपनी नई कार निकाली। पीछे की एक सीट पर सुरभि बैठी। थोड़ी देर बाद गोपाल साहू जी अपनी पत्नी गीता के साथ आए।
“बाबूजी ! आप यहाँ पर आइए।” अपनी बगल वाली सीट की ओर इशारा करते हुए शशांक बोला- ” और मम्मी आप वहाँ पर बैठ जाइए सुरभि के पास। इधर-उधर की बातें करते हुए अपने फार्म हाउस पहुँच गये। सात एकड़ की प्लाट में सब्जी लगी थी। कार से उतरे। सभी घूमने लगे। बहुत खुश थे। एक जगह खड़े हुए। गोपाल जी बोले- ” बहू ! सुरभि ! अब तो शशांक और तुम पर इसकी देखरेख की जिम्मेदारी है। हम लोगों से अब नहीं हो पाएगा; जो भी करना है तुम दोनों जानो।” गोपाल जी ने शशांक की ओर देखते हुए कहा।
“हाँ बाबू जी !” सुरभि बमुश्किल दो ही शब्द बोल पायी; और मुस्कुरा दी।
“लेकिन बाबू जी, पहले तो इतनी पैदावारी नहीं थी यहाँ ;है ना माँ …. पर अब तो इसकी उपज बहुत बढ़ गयी है।”
” हाँ…हाँ…. इसका मूल कारण है ताँदुला नदी का पानी। नदी की धारा यहीं से होकर बहती है। मेहनत के मुताबिक हमें कहाँ कुछ नहीं मिलता था पहले, पर अब ताँदुला की जलधारा ने हमारी किस्मत ही पलट दी है।” पूरे प्लाट को नजर भर देखते हुए गोपाल जी बोले।
” हाँ शशांक…! जब तुम छोटे थे तब यह सब नहीं था बेटा। इतनी हरियाली नहीं थी। ताँदुला के पानी का ही कमाल है यह सब।” गीता बोली।
घूमते और बातें करते हुए समय का पता ही नहीं चला। सूरज पश्चिम की ओर खिसक आया। वह लौटने वाले थे, तभी सुरभि ने शशांक को अँखियाया। आँखों ही आँखों में बात हुई। शशांक को पहले अजीब लगा। फिर बोला- ” खैर कोई बात नहीं। चलो घर चलते हैं।” सभी कार के पास आये।
नारीमन नयनों से ही नारीमन को बड़ी आसानी से पढ़ लेता है। तभी एक गंध भी आयी। गीता सब समझ गयी। उसने अपनी मन की बात गोपाल जी के कानों में डाल दी। सबको सब समझ आ गया। गीता बोली- ” ऐसी हालत में हम सब एक साथ एक ही कार पर बैठ कर घर नहीं जा सकते। सुरभि बेटा, तुम एक काम करो, जाओ फार्म हाउस में वहाँ पूरी सुविधा है, पहले नहा लो; फिर चलेंगे। ऐसे नहीं जा सकते।”
“हाँ शशांक…! तुम्हारी माँ ठीक कह रही है।” कार से झाँकते हुए गोपाल जी बोले- “जाओ तुम दोनों। हम दोनों कार पर हैं।”
सुरभि कहना तो चाहती थी, पर खामोश थी वह। शशांक सुरभि को देखते हुए कहा- “बाबूजी, छोड़िए न यह सब। सुरभि घर में जाकर जाकर नहा लेगी। शाम हो गयी है। बहुत ठंड भी है। सुरभि की तबीयत भी खराब है।”
“नहीं बेटा, ऐसे समय तुरंत नहा लेना बहुत जरूरी है।” गीता ने तुरंत फुसफुसाया।
“माँ…कुछ नहीं होता ओ…।” शशांक ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा। सुरभि को भी यह सब अच्छा नहीं लग रहा था, पर क्या करती; चुप थी, बहू जो ठहरी।
“बेटा, मेरी सासू माँ तो…. यानी तुम्हारी दादी मुझे तो किसी कमरे में घुसने तक नहीं नहीं देती थी ऐसी हालत में; पूछ लो तुम्हारे बाबू जी से। वह तो मुझे किसी चीज को छूने भी नहीं देती थी। हर चीज मुझे दूर से दिया करती थी। मुझे तुरंत ही किसी भी समय हो नहाने को कहती। ना नुकुर करने पर एकदम भड़क जाती थी। यह समय होता ही है ऐसा बेटा।” गीता की आवाज में थोड़ी तीव्रता थी। शशांक और सुरभि ने देखा कि बाबू जी माँ की बातों पर हाँ में हाँ मिला रहे हैं। बहुत देर तक बातें होती रही। अब तो सिंदूरी शाम को रात की कालिमा निगलती जा रही थी। कुछ देर तक अच्छी तरह सोच कर शशांक ने बोलना शुरू किया- “बाबूजी ! माँ जी ! यह एक ह्यूमन बॉडी का नेचुरल प्रोसेस है।”
“देखो बेटा, इस पर अधिक बातें करना व्यर्थ है। इसे एक परंपरा ही समझ लो।” अपना पल्लू संभालते हुए गीता बोली”।
“तब तो यह परंपरा जरूर टूट जानी चाहिए माँ । बाबूजी, एक बात बोल रहा हूँ मैं , फिर जो बोलना होगा आपको, बोलेंगे। पहले मेरी बात सुन लीजिए। यह हमारी जो प्लाॅट है, बंजर हुआ करती थी; आज कितनी उपजाऊ हो गयी है। इसकी वजह आप जानते ही हैं; और वह है ताँदुला नदी का पानी। ताँदुला की धारा ने हमारी तकदीर बदल दी है। यह प्रकृति की देन है बाबूजी। ताँदुला की जलधारा से पूरी कच्छारभूमि में नयापन आ गया है। माँ ,प्रकृति की कोई भी प्रक्रिया अनावश्यक और; व्यर्थ नहीं होती। आज हमारे इस बंजर धरती में एक नवसृजनात्मक परिवर्तन हुआ है। ठीक इसी प्रकार बाबूजी, मानव शरीर में आवश्यक प्राकृतिक प्रक्रिया है यह। हीन या हेय इससे दूर होने चाहिए। गोपाल जी बोलना तो चाहते थे बीच में, पर नहीं बोले। बार-बार चश्मे के काँच को पोंछ रहे थे। गीता का मन कुछ बोलने को कर रहा था। बोली- “वो सब अलग चीज है बेटा।”
“नहीं माँ …! कुछ अलग नहीं है। एक ही बात है। आप समझती क्यों नहीं, आप तो एक औरत हैं। माँ , आपकी इसी प्रक्रिया से ही मैं पैदा हुआ हूँ । अगर आप इस प्रक्रिया से नहीं गुजरतीं तो मैं इस दुनिया में कैसे आता।”
शशांक की बातें सुनते ही गीता चुप हो गयी। गोपाल जी फिर बोले- “जितनी देर से यह बात हो रही है, उतने समय में यह सब निपट जाता।” अब तो शशांक रुकने वाला नहीं था- “बाबूजी ! दिस इज़ एन इंपॉर्टेंट फिजिकल प्रोसेस ऑफ द ह्यूमन बॉडी। ए ऑस्सेपिसियस प्रोसेस है बाबूजी। छोड़िए बाबूजी यह सब। तइहा के बात ल बइहा लेगे। जब ट्रेडिशन इज़ नॉट गोइंग अकॉर्डिंग टू मॉडर्न ए टाइम देन इट इज़ कॉल्ड ए कंजरवैटिज़्म; यूँ कहें, ब्लाइंड फैथ।” गोपाल जी कहने लगे- “इस पीरियड का जिक्र धर्म भी करता है। इसे अच्छा नहीं माना जाता बेटा; और गाँव-देहात में तो और ज्यादा।” शशांक तुरंत बोला- “पता नहीं लोग इसके बारे में तरह-तरह की बातें क्यों करते हैं ? सब दकियानूसी बातें हैं। बाबूजी, यह एक प्रोसेस है। धर्म; और धर्म के मानने वाले लोग इससे गुजरे बगैर कैसे और कहाँ से आ गए। मालूम नहीं लोग इसके पीछे इतनी सारी धारणाएँ क्यों बना लेते हैं। एक बात और है माँ ,यह वह प्रक्रिया है जिससे उठने वाली गंध के बारे में बोल रही थीं आप, इस गंध से पूरा मानव समाज रूपी बगिया महकती है। वह सुर्ख वर्ण पवित्र धारा है बाबूजी जिससे पूरे संसार का सृजन होता है। इसके बिना तो दुनिया की परिकल्पना संभव ही नहीं है। सॉरी बाबू जी ! माफ करना माँ ! मैंने आज बहुत अधिक बातें कर दी; मुझसे रहा नहीं गया।” शशांक का बोलना बंद हुआ।
सुरभि को भी अच्छा नहीं लग रहा था। चुपचाप खड़ी थी। तभी गोपाल जी और गीता हल्के कदमों से बाउंड्री वॉल की ओर गये। दोनों के बीच कानाफूसी हुई। झट से दोनों वापस आये। गोपाल जी कार पर बैठ गये अपना सीटबेल्ट कसते हुए बोले- “सुरभि बेटा ! आओ, चलो, रात हो रही है। शशांक आओ स्टार्ट करो गाड़ी। फिर गीता सुरभि के पास आयी; उसकी उंगली पकड़ी। कार में अपने पास बिठायी; और मुस्कुराती हुई बोली- “मुझे बहुत जल्दी दादी बनना है। क्यों, तुम्हारी क्या राय है सुरभि… देर नहीं…न…न…न…!” सुरभि भी मुस्कुरा दी। चेहरा खिल गया। कार चल पड़ी।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”