लघुकथा

होली के रंग

“यहॉंतो बस हम दोनों है, क्या होली मनाये?” नैना ने अनमने ढंग से दीपक से कहा ।
“देखो नैना मैं मानता हूं,  छोटे शहर के जैसा इस महानगर में नहीं है !”
“घर जाना इस बार संभव नही…..और इस शहर में सभी रिश्तेदार बहुत दूर रहतें हैं। हम सब सोसाइटी में हर साल  मिल कर होली मनाते हैं।”
 “होली यहां भी रंगों से सराबोर होती है होली में क्या अपने ..क्या पराये? चलों नीचे सभी सोसाइटी के लोगों  के साथ होली खेलते है ।” दीपक नें नैना से कहा।
“होली है”… तभी टोली की आवाजों के साथ दरवाज़ें की घंटी बजती है । दरवाज़ा खोलते ही “होली है”….. रंगों और हंसी की बौछारों के साथ लड़के-लड़कियों की टोली घर मे प्रवेश कर गयी ।
“हम सब भाभी के साथ होली खेलनें आये हैं,आप दोनों खेलने नहीं आये…… तो सोचा हम ही ……. भाभी के साथ होली जो खेलनी है!”  लड़की  ने हंसते हुए कहा  “बड़ा मज़ा आयेगा “
“हम भी तो देखें भाभी कितने पक्के रंग लगाती है “?
“हां-हां देखना है, रंग छूटतें है या नहीं!” पीछे से आवाज आयी
मीठी गुझियां मुॅंह में डाल हंसी ठिठोली की बौछारों से सारा बालकनी जैसे भीग गया । होली के रंग ले  दीपक ,नैना दोनों टोली के साथ स्नेह रंगों में डूबते-उतरते निकल पड़ते हैं। होली है ……  नारे लगाते ।
— बबिता कंसल 

बबीता कंसल

पति -पंकज कंसल निवास स्थान- दिल्ली जन्म स्थान -मुजफ्फर नगर शिक्षा -एम ए-इकनोमिकस एम ए-इतिहास ।(मु०नगर ) प्राथमिक-शिक्षा जानसठ (मु०नगर) प्रकाशित रचनाए -भोपाल लोकजंग मे ,वर्तमान अंकुर मे ,हिन्दी मैट्रो मे ,पत्रिका स्पंन्दन मे और ईपुस्तको मे प्रकाशित ।