गीत/नवगीत

खुद की राह बनाऊँगी

जीवन साथी चला गया, चाह जीने की चली गई
सिर के बाल झड़ गए, चेहरे की रौनक खो गई।

बहु-बेटी कहती हैं मुझसे, रंगदार कपड़े पहनो माँ
पापा की छवि बिंदिया में, उसको न मिटाओ माँ।
बेटा भी कहता है मुझसे, पहचान खुद की न भूलो
आँसू कमजोर बहाते हैं, उनको मत बरसाओ माँ।

दुख में डूबे बच्चों मुझे समझो, बिखरी हुई हूँ अंदर से
सिहर और घबरा जाती हूँ, होश भी कभी गंवा देती हूँ
चारों तरफ फैली दुनिया में, क्यों अपनों को ढूंढ रही ?
मोह माया से ऊपर उठ कर, एकांत भी तो चाह रही ।

फिर भी प्रण करती हूँ बच्चों, भीतर से नहीं टूटूँगी
संतुलित मन से कर्मयोगी बन, नियति से न हारूँगी
साथी की यादों को संग ले, मंजिल तक मैं पहुँचूँगी
थोड़ा सा वक्त तुम दे दो, खुद की राह बनाऊँगी ।

— अरुणा चाबा

अरुणा चाबा

शिमला की ठंडी वादीओं में 11 जुलाई 1950 को जन्म लेने के बाद,मेरी शिक्षा की नीव महाराष्ट्र में पड़ी। राजस्थान से 1972 में M.Sc.(Physics ) करने के बाद आजीविका की शुरूआत एक अध्यापिका के रूप में की। उसके उपरांत Information Technology में विभिन्न सरकारी पदों पर कार्यरत रह कर, केन्द्रीय से ले कर जिला स्तर तक सरकारी कार्यालयों के कंप्यूटरीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बचपन से साहित्य से जुड़ी थी, पापा के प्रोत्साहन से। साहित्यकार तो नहीं बनी, परंतु बहुधा लेखनी के माध्यम से समय-समय पर अपने जानने वालों से हिन्दी एवं अंग्रेजी में जीवन मूल्यों और जिंदगी से जुड़े अमूल्य अनुभवों के लेख और कविताएं सांझा करती रही। जिस समाज ने इतना कुछ दिया था, उसका ऋण चुकाने के उदेशय से, 2012 में अवकाश प्राप्ति के बाद से मैं वंचित वर्ग के बच्चों की शिक्षा के साथ जुड़ी हूँ। लेखन में रुचि होने के कारण कुछ साहित्यकारों का सानिध्य भी मिला है, जिन्हों ने मुझे लेखेन में परिपक्वता लाने के लिए प्रेरित किया। 9899778200 [email protected] स्थाई पता : 724, Sector 7C, Faridabad -121006