बेदर्द
“तुम्हारा अंश मेरी कोख में आ गया है विश्वास!” फोन पर अनिमा थी।
“क्या बक रही हो? आहिस्ता बोलो! पत्नी पास वाले कमरे में है। तुमने सुरक्षा नहीं बरती थी क्या ?”
“विश्वास! मैं पति से अलग रहती हूँ। ऐसी वस्तुएँ कैसे और कहाँ से लाऊँ? आने से पहले तुमने बताया भी नहीं था। जब तक हम रिश्ते में थे, इन बातों का ख्याल तुमने रखा था। कुछ याद है कि सब भूल चुके हो?”
“याद है, दुहराओ मत! पर उस दिन कुछ अलग ही था। शादी तय होने पर तुमसे मिलकर हमेशा के लिए विदा लेने आया था, जुदा हो जाने का अहसास और भावनाओं का अतिरेक…ओहह, यह अच्छा नहीं हुआ।”
“अब मैं क्या करूँ?” अनिमा का प्रश्न था।
“तुम वयस्क हो। अवांछित परिस्थितियों में से कैसे निकलें, बताना पड़ेगा? खर्च की चिंता मत करना, पैसे भेज दूँगा?”
“नहीं चाहिए, मैं काम करती हूँ। पर कोख में नवजीवन की दस्तक से कोमल अनुभूतियाँ जन्म लेने लगी थीं। उम्मीद थी, तुममें भी कुछ एहसास …। कोई नहीं, एकाकी माँ बनने की इजाजत दे दो। दिवंगत पति से एक बच्चे की माँ हूँ ही, आगत को भी पाल लूँगी।”
“भरोसा नहीं कर सकता। आने वाले दिनों में ब्लैकमेलिंग पर उतर आई तो? बॉस से कहकर दूसरे शहर में तबादला करवाने की सोच रहा हूँ। यूँ भी, जो था, परस्पर समझौता था। इसमें उम्मीद कैसी?” विश्वास का फोन कट गया, शायद हमेशा के लिए…।
परिवर्तित परिस्थितियों में अनिमा स्वयं को एक कठिन एवं कठोर फैसले के लिए तैयार करने लगी थी। स्कूल जाते मासूम बच्चे के भविष्य पर अपने अपरिपक्व हरकतों की कोई परछाईं नहीं पड़ने देना चाहती थी…।
— नीना सिन्हा