साक्षी हो गया ज़माना
साक्षी हो गया ज़माना फिर,
एक चित्कार का, तड़पन का,
सामने होते निर्मम अत्याचार का,
चरम है ये पुरुषत्व दुर्व्यवहार का।
साहिल समझती आ रही जिसे,
सदियों से नारी पूर्णत्व का,
दोहराती इतिहास भेंट चढ़ गई,
लाड़ली साक्षी शिकार हुई दमन का ।
हाय! आज फिर छली गई,
फिर पत्थरों से कुचली गई,
पशुता क्रूरता दमन रूप था वही,
हाँ पुरुष! जिंदा तेरा अहम था वही
साक्षी थे सभी,थे साक्षी के सामने,
बेज़ुबान जानवर से निहारते,
घूरते रहे तमाशा देखते रहे,
ख़ामोश अपनी-अपनी समेटते रहे,
बढ़ा न कोई, आया न कोई,
इंसानियत का दामन थामने।
— भावना अरोड़ा ‘मिलन’