बालकहानी : नीम का पेड़
आज सुरभि का मन अच्छा नहीं लग रहा था। न तो पढ़ने-लिखने की उसकी इच्छा हो रही थी; और न ही खेलने-कूदने की। यहाँ तक उसने आज एक बार भी टीवी ऑन नहीं किया था। अपने मनपसंद गेम देखने के लिए उसने मोबाइल पर उंगलियाँ भी नहीं चलायी थी। डरी-सहमी बैठी सुरभि पर अचानक दादा जी की नजर पड़ी। उन्हें अच्छा नहीं लगा। उनका मन खटकने लगा कि आखिर बात क्या है, कि नटखट व चुलबुली सुरभि कुछ इस तरह बैठी हुई है। वे कुछ देर तक उसे निहारते रहे। अब भी वह चुप व खिन्न थी। फिर दादा जी से रहा नहीं गया। अपनी कुर्सी को पकड़ कर सुरभि के पास गया। बोले- “आज सुबह से मैं तुम्हें देख रहा हूँ। तुम मुझे फ्रेश नहीं लग रही हो। क्या बात है बिटिया? मम्मी ने डाँँटा क्या.. पापा ने कुछ कहा… भैया ने मारा…आखिर बात क्या है…इतनी गुमसुम क्यों हो?” सुरभि अब भी चुप रही। एक शब्द नहीं बोला उसने। दादा जी फिर कहने लगे- “सुरभि ! बताओ रानी, क्या बात है। तुम्हारा इस तरह चुप्पी साधना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा है।” दादा जी के बार-बार पूछने पर सुरभि कहने लगी- “दादा जी! मुझे कल की घटना बहुत याद आ रही है। मुझे बहुत दुःख हो रहा है कल की घटी घटना के लिए…” कहते हुए सुरभि चुप हो गयी।
“कौन सी घटना रानी बिटिया!” दादा जी ने अपनी कुर्सी सुरभि की ओर सरकाते हुए कहा।
” वो क्या है ना..?” सुरभि की ठिठकती जुबान निकली।
“हाँ..हाँ..बोलो..वो क्या है?” दादा जी ने पूछा।
“दादा जी! कल बाड़ी के नीम के पेड़ पर चिड़िया का घोंंसला है ना। उसके बच्चों को खाने के लिए एक साँप उस पर चढ़ा था। दादा जी, अगर आप और पापा जी सही वक्त पर नहीं पहुँचते तो वह साँप चिड़िया के बच्चों को खा जाता। बेचारे वे मर जाते; और फिर उसकी माँ को कितना दुःख होता।” सुरभि सिसकने लगी।
“नहीं.. नहीं..। रोना नहीं। दादा जी ने सुरभि को अपनी गोदी में उठा लिया। तभी दादा जी व छोटी बहन सुरभि की बातें सौरभ के कान पर पड़ी। वह भी दौड़ कर आया। बोला- “दादा जी ! वह साँप बहुत बड़ा था। अच्छा हुआ कि पापा जी ने डंडे व पत्थर मार कर उसे भगा दिया। दादा जी, अच्छा होता कि इस पेड़ को कटवा देते। हर साल ऐसा कुछ न कुछ होते ही रहता है इस पेड़ पर। कई तरह की पक्षियाँ इस पर घोसला बनाते ही रहते हैंं। बीट कर देते हैं। बहुत बदबू आती है। दादा जी, आप पापा जी से बोलकर इसे कटवा दीजिए ना। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।” दादा जी बोले- “तुम दोनों जो बातें कर रहो, वो सब तो ठीक है। पर इन सबके लिए पेड़ को ही कटवा देना, कोई समझदारी वाली बात नहीं हुई।”
“तो फिर क्या किया जाय दादा जी?” सौरभ बीच में ही बोल पड़ा।
“सौरभ बेटा! इस पेड़ की उपयोगिता जानते हो…महत्व समझते हो..? बड़े काम की प्राकृतिक औषधि है नीम का पेड़।” दादा जी ने सौरभ की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा।
“आखिर यह बहुत बड़ा हो गया है अब। बुढ़ा भी हो गया है। सुरभि दादा जी की तर्जनी पकड़ते हुए बोली।
सुरभि की बातें सुनकर दादा जी को हँसी आ गयी। बोले- “बेटा, बूढ़ा तो मैं भी हो गया हूँ; तो क्या…?”
“दादा जी..! आप भी ना…कैसी बातें करते हैं?” सौरभ व सुरभि मुस्कुरा दिये; और सकुचा भी गये। फिर दादा जी सौरभ व सुरभि को बाड़ी में ले जाते हुए कहने लगा- “बच्चों! मेरी बातें पहले ध्यान से सुनो; फिर अगर तुम्हें लगेगा कि इसे कटवा दिया जाय तो, कटवा देंंगे।
“हाँ..बोलिए न..दादा जी, जो आप हमें बताना चाहते हैं। बताइए न दादा जी।” सौरभ व सुरभि ने एक ही स्वर में कहा।
दादा जी उस नीम के बारे में बताने लगे- “बच्चो! प्रथम व महत्वपूर्ण बात तो यह है कि मैं और तुम्हारी दादी ने इसे अपनी शादी की पहली वर्षगाँठ पर लगाया था। तुम्हारी दादी आज हमारे बीच नहीं है। इस पेड़ के साथ तुम्हारी दादी की यादें जुड़ी हुई है। जब मैं भी दुनिया से चला जाऊँगा, तब तुम लोग इसे देखकर मुझे भी याद करोगे। यह पेड़ तुम सब के लिए धरोहर होगा।” बच्चे दादा जी की बात बड़े ध्यान से सुन रहे थे। दादा जी ने आगे कहा- ” सौरभ.. सुरभि…! यह पेड़ दिखने में भी बड़ा खूबसूरत दिखता है; मस्त बढ़िया हरा-भरा। इसकी छाया घनी व शीतल है। एक और अच्छी बात बता रहा हूँ बच्चों, कि तुम्हारे पापा जी इसके छाँव तले बैठकर पढ़ाई-लिखाई किया करते थे। अपने दोस्तों के साथ इसके नीचे खूब खेला करते थे। इस पेड़ से उसका बचपन जुड़ा हुआ है। तुम्हारी दादी जी इसकी टहनियों का दँतुवन किया करती थी।”
“और आप नहीं करते थे दादा जी.? ” सुरभि ने बीच में एक सवाल छोड़ दिया।
“मैं भी कभी-कभी इसका दँतुवन किया करता था; हमेशा से बबूल का दँतुवन करने की मेरी आदत रही है, जैसे कि तुम सब जानते ही हो।” दादा जी ने हँसते हुए कहा।
“नीम के पेड़ का और क्या उपयोग है दादा जी?” सौरभ की जिज्ञासा बढ़ती गयी।
“बेटा सौरभ! नीम का पेड़ नख-शिख उपयोगी होता है। इसकी जड़ से पत्तियाँ तक बड़े काम की होती है। स्वाद में पूरे नीम का पेड़ कड़ुवा होता है। इसके कड़ुवेपन में ही गुण होता है। यह एक औषधियुक्त पेड़ है। इसके आसपास की हवा शुद्ध व शीतल होती है। इससे पर्यावरण की रक्षा होती है। नीम की पत्तियों को दलहन व तिलहन जैसे अनाज में मिलाने पर अनाज कभी खराब नहीं होता। घर-आँगन में सूखी पत्तियों को जलाने से मच्छर जैसे अन्य हानिकारक कीड़े-मकोड़े सब भाग जाते हैं; मर जाते हैं। फूल भी सुंदर और सुगंधित होता है। नीम का फल निबौली कहलाता है। यह मीठा होता है। पक्षियों का यह एक मनपसंद फल होता है। इसके बीज को सुखा कर तेल निकाला जाता है। इसके खली को तेल के साथ मिलाकर खाज-खुजली व घाव-गोंदर में लगाने से बड़ी राहत मिलती है। इसके तेल को दीये जलाने के लिए भी उपयोग किया जाता है। हमारे ग्रामीण अंचल में नीम के पेड़ को देव तुल्य माना जाता है। पूजन-वंदन किया जाता है। तभी तो इसकी सूखी लकडिय़ों को ईंधन के रूप में उपयोग नहीं किया जाता। इसकी लकड़ी ईमारती होती है। इससे दरवाजे, खिड़की, फर्नीचर्स आदि बनाये जाते हैं। लोकपर्व व तीज-त्यौहारों में इसकी टहनियों का उपयोग किया जाता है। सुन रहे हो नहीं जी?”
“हाँ..हाँ..दादा जी सुन रहे हैं। झट से दोनों बच्चों ने कहा।
“एक और महत्वपूर्ण बात है बच्चों! अन्य पेड़ों की तरह नीम का पेड़ प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया पूरी करता है।”
“दादा जी! यह प्रकाशसंश्लेषण क्या है?” सौरभ व सुरभि ने एक-दूसरे को देखते हुए दादा जी प्रश्न किया।
“बच्चों! पेड़-पौधे अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। इसके लिए वे अपनी जड़ के जरिए जमीन से पानी व खनीज तत्व लेकर सूर्य के प्रकाश से भोजन बनाते हैं। इस प्रक्रिया में पेड़-पौधे वायुमंडल से काॅर्बनडाइऑक्साइड ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन गैस छोड़ते हैं। इस भोजननिर्माण में पत्तियों की विशेष भूमिका होती है। इस पूरी प्रक्रिया को ही प्रकाशसंश्लेषण क्रिया कहते हैं। इसमें पेड़-पौधों द्वारा विसर्जित ऑक्सीजन हमारी श्वसन क्रिया में उपयोगी है। बच्चों, हम सब जानते ही हैं कि आज वैश्विक महामारी कोविड-19 हमें ऑक्सीजन के लिए कितना तरसा रही है। ऑक्सीजन की कमी का मूल कारण पेड़-पौधों का कटना ही है। इसलिए आज पेड़-पौधों को काटना नहीं, लगाना बहुत जरूरी है। दादा जी ने एक लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा- “अब तुम दोनों ही बताओ कि इस नीम के पेड़ को क्या किया जाय।”
दादा जी की बात सुन कर सौरभ और सुरभि कुछ देर तक खामोश रहे। फिर सौरभ ने कहा- ” हाँ दादा जी यह नीम का पेड़ हम सब के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसे हम नहीं कटवायेंगे।”
“हाँ..हाँ..दादा जी इसे बिल्कुल नहीं कटवायेंगे…नहीं कटवायेंगे।” सुरभि ने भी हामी भरी।
“तो फिर ऐसा क्या किया जाय कि इस नीम के पेड़ पर घोसला बनाने वाले पक्षियों का कोई नुकसान भी न हो; और यह शान से खड़ा भी रहे।” दादा जी ने प्रश्न किया। सौरभ और सुरभि सोचते ही रहे। उन्हें कुछ सूझा ही नहीं, तब दादा जी ने कहा- “बच्चों! तुम दोनों अपने पापा जी से कहना कि इस पेड़ के लिए एक गोल-मजबूत दीवार का घेरा बनवा दें। इससे सब का काम बन जाएगा।”
“हाँ..हाँ..दादा जी। यह ठीक रहेगा। सौरभ व सुरभि ने मुस्कुराते हुए कहा। फिर दादा जी ने चुटकी लेते हुए कहा- “बच्चों! तुम दोनों भी इस नीम के पेड़ के पास कोई भी एक पेड़ लगाना, तभी तो तुम्हारे पोते-पोतियाँ उसकी छाँह के नीचे खेलेंगे; जैसे कि मेरे और तुम्हारी दादी जी के द्वारा लगाए इस नीम के पेड़ के नीचे तुम दोनों खेला करते हो।” दादा जी की बात सुन कर सौरभ व सुरभि खिलखिला कर हँस पड़े।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”