लघुकथा – बूंद और समुंद्र
अभिषेक और मोहित चचेरे भाई थें। वें परीक्षा दे कर गांधी मैदान से बस पकड़ने जा रहें होते हैं। रास्ते में एक दुकान पर रुक कर कुछ खाने की चीजें खरीदने लगते हैं। तभी एक बुजुर्ग बदहाल स्थिति में उनके पास आती है,और अभिषेक से कहती है, ’बेटा बहुत जोड़ों की भूख _प्यास लगी है ,थोड़ा सा कुछ खाने को दे दो। भगवान तेरा भला करेगा।’
अभीषेक जब अपने पैकेट में हाथ डालता है तो,उसके पास एक पांच सौ का नोट होता है। मोहित इनकार में सिर हिलाता है। वही अभिषेक ये भी देख रहा होता है, कि कोई भी शक्श उस बुजुर्ग की मदद नहीं कर रहा होता है।वो झट नोट को दुकानदार की ओर बढ़ा देता है,_भईया! 2समोसे और 1पानी की बोतल देना।’
फिर अभिषेक अतीत की स्मृतियों में खो जाता है,_बहुत छोटा था वो। बस से अपने ननिहाल से घर आ रहा होता है,तभी बस में एक महिला चढ़ती है।वो अक्षित से कहती है_’बेटा सुबह से भूखी हूं,कुछ खाने को दे दो।’
अभिषेक के एक हाथ में लड्डू और दूसरे में सेब होता है। वो झट से लड्डू वाला हाथ छुपा लेता है और सेब आगे कर देता है। जिसे उसने एक बार काटा होता है।
बूढ़ी इन्कार से सिर हिलाते हुए कहती है,_’दे भी रहे हो तो जूठा। नहीं चाहिए।’
ये बात अभिषेक को बुरी लगती है।वो अपना लड्डू देने के लिए बुढ़िया को पीछे ढूंढता है, मगर किसी ने उसे नहीं देखा होता है, सिवाय अभिषेक के।अभिषेक आत्मग्लानी से भर उठता है,उसे बार_बार एक ही बात याद आती है, ’दे भी रहे हो तो जूठा,,।’वो हर दम उस बुढ़िया को ढूंढता रहता।
इधर ये बूढ़ी औरत पानी पी कर तृप्त हो जाती है।और अभिषेक को ढेरों आशीर्वाद देते हुए चली जाती हैं,_’बेटा तुम दिन दोगुनी,रात चौगुनी तरक्की करो।तुमने मुझे कतरा दिया है,देखना ईश्वर तुम्हे दरिया देंगे।खूब फूलो_फलों।’
घर आते ही पापा का झन्नाटेदार थपड्ड अभिषेक को सन्न कर देता है। ’पढ़ना_लिखना तो है नहीं। खाली नोट उड़ाएंगे,बड़ा आएं 500 का छुट्टा करा के पानी पिलाने वाले।यहां हम बूंद _बूंद जमा करते हैं, तब जाकर पढ़ते है जनाब और बनते हैं समुंदर के राजा। पहले कमाइए फिर उड़ाएगा।’ मगर अभिषेक आत्मग्लानी से मुक्त स्वयं को हल्का महसूस कर रहा होता है। हल्की मुस्कान उसके चेहरे को आभा प्रदान कर रही है।
तभी अभिषेक अनाउंसमेंट सुन स्मृतियों से बाहर आ खड़ा हो जाता है_’कैप्टन निखिल उपेंद्र आ रहें हैं।’ कैप्टन अभिषेक से पूछते हैं,_’what happened officer’? कहां खोए हो?
अभिषेक ’nothing sir! बस सोच रहा था, कि सच ही कहा था किसी ने,कि तुमने कतरा दिया है, तुम्हें दरिया मिलेगा। मैंने तो बूंद ही दिया था और मुझे समुंद्र मिल गया।’
निखिल_’क्या बात है,आजकल जनाब शायर भी बन रहें हैं।’ फिर एक ठहाके के साथ सभी समुंद्र को निहारने लगते हैं।
— रजनी प्रभा