मेरी कविता
मेरी कविता
कोमल- कठोर हो जाती
समय के अनुसार नहीं चलती है ।
मेरी कविता
किसी का मन हरषाती
तो किसी के सीने में चुभ जाती है ।
मेरी कविता
गांव की पगडंडी पर मिल जाती
कुछ पागल, कुछ भोली बनकर बतियाती है ।
मेरी कविता
मंद -मंद मुस्काती
प्रेम सुधा रस बरसाती है ।
मेरी कविता
जन-जन की पीड़ा हरती
शोषण, अत्याचार, भेदभाव से लड़ जाती है ।
मेरी कविता
फूल -कांटे बन जाती
जहां जिसकी जरूरत वैसी ही हो जाती है ।
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा