कहानी

नए भारत की भाग्य रेखा

तीन दिनों से केंद्रीकृत वातानुकूलन वाले होटल के सभाकक्ष में चल रही एक संस्था की योजना बैठक में आए प्रतिभागी लम्बी और गहन चर्चाओं  के साथ साथ, भीतर की आभासी ठण्ड से भी थक चुके थे। बाहर के खुले वातावरण में श्वांस भरने को आतुर ये सभी सहकर्मी प्रतिभागी सायंकाल अवकाश होते ही पर्यटन के लिए प्रसिद्ध उस नगर के मुख्य बाज़ार की ओर दौड़ पड़े। इन प्रतिभागियों में से एक नयनिका भी थी।

बाज़ार पहुँचते ही सारे नयनिका के सभी सहकर्मी अपनी अपनी रूचि के अनुरूप दुकानों की दिशा में बढ़ गए, पर्यटन के साथ साथ ये नगर अपने हस्तशिल्प के लिए भी विख्यात है इसलिए कुछ लोगों के पास खरीददारी की भी पूरी सूची थी, जिनके पास सूची नहीं थी वे भी कुछ न कुछ खरीद लेना चाहते थे। एक नयनिका ही ऐसी थी जो एक स्थान पर  निश्चिंतता से खड़े रहकर आने जाने वालों, व्यापारियों, पैदल पथ की छोटी छोटी अस्थायी दुकानों को देखकर उस नगर के नागरिकों और संस्कृति को समझना चाहती थी।

नयनिका, बाज़ार की सुन्दरता बढ़ाने और व्यवस्था बनाने के लिए लगायी गई एक रेलिंग के सहारे खड़े होकर उत्सुकता से बाज़ार की गतिविधियों को देखने में तल्लीन थी, तभी किसी ने उसका ध्यान भंग किया।

एक बालिका हाथ में टोकरी लिए उसमें रेशमी धागों से बनाये जाने वाले आभूषण बेच रही थी। आयु होगी यही कोई आठ- दस वर्ष, बड़ी-बड़ी गहरी काली आँखें, घुंघराली केश राशि जो थोड़ी बिखरी हुयी थी, श्यामल रंग और आनन पर मैत्री का भाव। नयनिका ने उसकी ओर देखा तो, दृष्टि  निक्षेप से ही उसने आभूषण खरीदने का आग्रह किया। नयनिका ने भी वैसे ही प्रत्युत्तर में सिर हिला दिया, “नहीं चाहिए”। बालिका ने पुनः उसी प्रकार आग्रह किया और नयनिका ने भी उसी प्रकार न कह दिया। संभवतः नयनिका के दोबारा मना करने को  बालिका ने  चुनौती के रूप में  स्वीकार किया और मन ही मन निर्णय ले लिया कि अब तो मैं इनको अपने आभूषण विक्रय कर के ही रहूंगी। वह नयनिका के निकट आ गयी।

ले लो ना दीदी, देखो कितने सुन्दर हैं…

हाँ सुन्दर तो हैं, पर हमें आवश्यकता नहीं है। नयनिका ने टोकरी पर दृष्टि डालते हुए कहा।

क्यों नहीं है? अपने इस लहंगे के साथ पहनोगी तो बहुत अच्छी लगोगी। बालिका ने नयनिका की लॉन्ग स्कर्ट को इंगित करके कहा।

मैं आभूषण नहीं पहनती….देखो कुछ पहना है क्या?

वही तो….. पहनोगी, तभी तो समझ में आएगा …….

नहीं चाहिए, नयनिका ने थोड़ी सख्ती से कहा ।

बालिका उदास हो आई, जैसे कोई युद्ध हार गयी हो। आनन पर मैत्री का भाव तिरोहित सा हो गया। नयनिका को कुछ अपराध बोध हो आया।

आओ, तुम्हें आइस क्रीम खिलाती हूँ , पास ही खड़े ठेले की तरफ देखकर नयनिका ने बालिका से कहा।

नहीं, आइस क्रीम नहीं चाहिए। तुम कुछ खरीद लो ना, लहंगे के रंग का कंगन दूं? वो अपनी टोकरी में आभूषण छांटने लगी।

मैं नहीं लूंगी, नयनिका पुनः सख्त हो गयी। नयनिका को लगा बालिका उसकी भावुकता का लाभ ले रही है

बालिका अब कुछ उदास हो आई और आगे बढ़ने लगी। नयनिका असमंजस में अ गयी। तभी उसने अपनी कुछ सहकर्मियों को आते देखा जो खरीददारी से भरे थैले लेकर आगे बढ़ रही थीं। नयनिका ने बालिका को रोका, और अपनी सहकर्मियों के निकट ले गयी।

तुम लोग ये हाथ के बने रेशम के कंगन-झुमके देखो….कितने सुन्दर हैं, लेकर जाओ यहाँ से। मैं नहीं पहनती इसलिए नहीं ले रही। बालिका कि आँखे प्रसन्नता से खिल गयीं। नयनिका अपने अपराध बोध से मुक्त हो गयी।

अब नयनिका अपनी सहकर्मियों और बालिका के मध्य हो रहे विपणन को देख रही थी। उसकी सहकर्मियों ने अपनी इच्छा के रंगों के कंगन- झुमके- कंठमाल ढूँढने के प्रयास में टोकरी में सुरुचि पूर्वक रखे आभूषणों को उथल पुथल कर दिया था। ये देखकर बालिका कुछ कुपित सी लग रही थी। कुछ सहकर्मियों ने मोल-भाव प्रारंभ कर दिया था जो पूर्ण रूपेण अनावश्यक था। बालिका मूल्य कम करने की स्थिति में नहीं थी। नयनिका की एक सहकर्मी अब बालिका को धमकाने जैसी भाषा में बोल रही थी।

अरे हम तो बच्चा समझ कर लेने लगे

ये कौन पहनता है

एक बार पहन लो फिर इधर उधर पड़ा रहता है

हाँ दो-चार बार पहन के गन्दा हो जायेगा फिर व्यर्थ

इतने का देना है

देना है तो दो ….

दीदी लोग, हम कम नहीं कर पाएंगे। लेना हो तो ठीक नहीं तो कोई बात नहीं। आँखें लाल हो जाती हैं बनाते बनाते। एक एक धागा मढ़ना पड़ता है। संभाल के रखोगी तो सालों चलेगा, रेशम का धागा है।

बालिका अपनी टोकरी का सामान व्यवस्थित कर रही थी किसी अनुभवी विक्रेता की तरह। आनन पर उदासी के साथ – साथ कुछ क्रोध का भाव भी था। नयनिका की सहकर्मी बहनें आगे बढ़ गयी थीं। नयनिका लज्जा से व्यथित थी, स्वयं को बालिका का अपराधी समझ रही थी।  उसने क्यों अपनी सहकर्मियों से अपेक्षा की कि वो कुछ क्रय कर लेंगी? उसने स्वयं ही कुछ क्यों नहीं क्रय कर लिया ? सहसा नयनिका के मन में एक विचार आ गया, नवरात्र में कन्या पूजन के पश्चात उनको कुछ उपहार भी देते हैं, क्यों न ये आभूषण ही ले लूं? अपने पर क्षोभ हो आया, ये विचार पहले क्यों नहीं आया? अनावश्यक ही बालिका को इतना कष्ट हुआ। बालिका अभी भी अपनी टोकरी व्यवस्थित कर रही थी, वह बालिका के पास पहुँच गयी। बालिका ने सिर उठाकर नयनिका को देखा, निर्विकार भाव से।

मैं कुछ ले लूं ?

नहीं , तुम पहनती ही नहीं तो लोगी क्यों?

कन्या पूजन में छोटी छोटी प्यारी बच्चियां आती हैं, उनके लिए

सच में, बालिका के नेत्र फैलकर और बड़े हो गए

हाँ

क्या दूं ? बालिका के नेत्रों और आनन पर उजास छा गया, नयनिका तृप्त हो गयी।

चौदह कंठमाल, चौदह जोड़ी कंगन और चौदह जोड़ी झुमके, अब बालिका विस्फारित नेत्रों से देख रही थी। जैसे कुबेर का संग्रह मिलने वाला हो।

इतना !!!!

हाँ

हाँ , सुनते ही बलिका ढेर बनाकर गिनने लगी। ओह, कुछ कम पड़ गया।

दीदी, तुम यहीं रुको, हम अभी आते हैं। इसे देखना। टोकरी को इंगित करते हुए बोली। कुछ ही देर में ओझल हुयी और एक झोला लेकर प्रकट हो गयी

कम थे न वो, और ले आए

कहाँ से

माँ है ना, उधर बेचती है

बनाता कौन है ?

माँ – बापू और मैं, भैया अभी छोटा है वो नहीं बनाता..

तुम विद्यालय नहीं जाती

नहीं। नयनिका को दुःख हुआ। इतनी प्यारी बालिका का जीवन यूँ ही पैदल पथ पर बीत जायेगा।

ये लो दीदी। चौदह कंठमाल, चौदह जोड़ी कंगन और चौदह जोड़ी झुमके। सब देख लो। वैसे किसी में भी कोई कमी नहीं होगी। जो एकदम सही बनता है माँ वही बेचने के लिए रखती है।

कितने पैसे हुए, नयनिका को लगा कि वो फोन पर कैलकुलेटर खोल ले …

चौदह कंठमाल के पंद्रह गुणे चौदह यानि दो सौ दस, चौदह जोड़ी झुमके बारह के हिसाब से एक सौ अड़सठ और चौदह जोड़ी कंगन बीस के हिसाब से दो सौ अस्सी। कुल हुए दो सौ दस और दो सौ अस्सी यानि चार सौ नब्बे और एक सौ अड़सठ यानि छह सौ अट्ठावन। आप छह सौ पचास दे दो।

नयनिका आश्चर्य से देख रही थी। इस आयु के, बड़े अंग्रेजी विद्यालयों में जाने वाले बच्चे भी ऐसे मौखिक गणना नहीं कर पाते। बालिका संभवतः नयनिका के मन की बात समझ गयी थी।

तुम, फोन से देख लो दीदी, मेरा जोड़ एकदम सही है। अगर टूटे हैं तो छह सौ पचास यानि सिक्स हंड्रेड फिफ्टी दे दो अगर नहीं है तो एक हज़ार मतलब थाउजेंड दे दो, मैं माँ से लाकर तीन सौ पचास मतलब थ्री हंड्रेड फिफ्टी वापस दे जाउंगी।

अब तक बालिका की माँ भी आ पहुंची थी। इस संदेह में कि कोई बालिका को फुसला तो नहीं रहा। माँ को देख, बालिका चिहुंक उठी। ये संभवतः उसकी सबसे बड़ी सफलता थी।

माँ इनसे छह सौ पचास रुपए ले लो, आठ रुपए छोड़ दिए हैं हमने। माँ के आनन पर संतुष्टि और गर्व का भाव था।

नयनिका को लगा बालिका एकदम अपनी माँ पर गयी है। नेत्र, केश राशि, रंग एकदम एक समान। आयु का ही अंतर था।

धन्यवाद दीदी, माँ ने कृतज्ञता से कहा ।

तुम्हारी बिटिया, हिसाब तो बहुत अच्छे से कर लेती है। ऐसे तो बड़े बड़े विद्यालयों के बच्चे नहीं कर पाते। कैसे सिखाया ? ये पढ़ने नहीं जाती?

मौखिक वाला तो हमने ही सिखाया है, ये पढ़ने तो नहीं जाती।

पढ़ने नहीं जाएगी तो…..

दीदी, हमने घर पे अध्यापक लगाये हैं – वो इसको हिंदी, गणित और थोड़ी अंग्रेजी भी पढ़ाते हैं। ये हिंदी का पूरा समाचार पत्र पढ़ लेती है। गणित भी अच्छा करती है। अंग्रेजी के अंक भी जान गयी है। अध्यापक जी कहते हैं एक दो साल में हिंदी गणित अच्छी हो जाए तो फिर और विषय पढ़ाकर परीक्षा दिला देंगे। इतने छुटपन में ही इसका हाथ धागे मढ़ने इतना साफ है और ग्राहक भी संभालना जानती है तो काम बहुत आगे बढ़ा लेगी फिर अपने मन की रानी रहेगी।

नयनिका उस दूरदर्शी माँ को आश्चर्य से देख रही थी।

दीदी जब तुम, दो साल बाद आओगी ना, तब देखना हमारी अपनी गुमटी होगी और उसके पांच साल आओगी तो पक्की दुकान। बालिका ने अपने सपने उजागर करते हुए कहा, उसके चमकीले काले नेत्रों में भविष्य के सूरज उग आए थे।

हमको भूलना मत, हमीं से खरीदना ऐसे ही खूब सारे आभूषण। नयनिका ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ रख दिया मानों आश्वासन दे रही हो।

पैसों का हिसाब करके बालिका अपनी माँ के साथ एक ओर चल पड़ी और नयनिका अपने सहकर्मियों को देखने लगी।

तभी बालिका दौड़ का वापस आयी और नयनिका का हाथ पकड़ लिया।

दीदी एक बात कहनी थी..

बोलो…..

तुम बहुत अच्छी हो, हमारा इतना सारा सामान खरीदा, नयनिका संतुष्टि से मुस्करायी।

एक बात और कहनी है…

बोलो…

हमारे जैसे बच्चों को कभी आइस क्रीम का लालच मत देना। माँ कहती है, ऐसे लालच में पड़कर हम भिखारी बन जाते हैं और अपने काम की राह से भटक जाते हैं।

बालिका ने अपनी बात पूरी की और उसका हाथ छोड़कर अपनी माँ की ओर दौड़ गयी।

ओझल होती उस बालिका को देख नयनिका को लगा आज उसने पहली बार नए भारत की भाग्य रेखा को देखा है।

मीनाक्षी दीक्षित