ज़िन्दगी एक, नजरिया अनेक
ज़िन्दगी बहुत जटिल पहेली है, पर ज़िन्दगी पर देखने का नजरिया, हर उम्र मे बदलता रहता है।
१- बचपन में ज़िन्दगी पर नजर जाती ही नही, केवल खेलना और हट करने तक सीमित रहती है
२-बालपन के बाद, पाठशाला जाना, एक खेल, मौज मस्ती के नए विकल्प के रूप में दिखता है
३-स्कूल जाने की आयु में , ज़िन्दगी एक दिनचर्या का रूप लेने लगती है।
४-विद्यालय की आयु में एड्रचने /कठिनाइयां के आभास होने लगते हैl कभी कभी तो मरने और मारने की बाते होने लगती है
५-विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा की आयु में जीवन एक चकाचौध संसार में प्रवेश के लिए एक आवश्यक कदम के रूप में दिखता है
६-गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते ही, ज़िन्दगी में बंधन कभी कभी महसूस होने लगता है, कुछ बिर्ले लोग बंधन को तोड़ के , पुनः स्वतंत्र होने का गौरव प्राप्त करते प्रतीत होते है (लेकिन उनके ज़िन्दगी में अनिशचित का माहौल बन जाता है) । अधिकांश लोग पारिवारिक लाज्जा की आड़ में, जीवन के आनंद की परिकल्पना के साए में जीवित रहना शुरू कर देते है। ज़िन्दगी का यह काल, आयु का अधिकांश भाग खा जाता है
७-हम यह सोचते है कि पहले जीवन माता पिता के लिए, फिर बच्चो के लिए, फिर बच्चों के बच्चों के लिए लगा रहे है, परन्तु यह सोच, दूसरे के नजरिए से, परिदृश्य को पलट देती है
८-तब तक अपने जीवन का अधिकांश भाग खो देने के बाद, ज़िन्दगी में होश आता है, प्रश्न उठता है कि हमने क्या किया। क्या हम ज़िन्दगी जी सके/जीवन समझ सके/या जीवन व्यर्थ कर दिया।
९-प्रायः उत्तर अधिकांश रूप से उपरोक्त अंतिम विकल्प पर टिकता प्रतीत होता लगता है।
१० – अब बची ज़िन्दगी, जीवन के अंतिम पड़ाव की तरफ अग्रसर होता भाप कर, कुछ करने का मन करता है। परन्तु क्या करे, इस विषय पर जोर देने लगते है। किन्तु उत्तर नहीं सूझता, क्योंकि -अब तक इक्षाये पूरी हो या अधूरी, समाप्त होने लगती है /मस्तिष्क से अपने बारे में सोचने का विकल्प समाप्त हो जाता है / सार्वजनिक वर्तमान परिपेक्ष के कारण जीवन में अनिश्चितता घर करने लगती है।
११- घर में उपलब्ध हर वस्तु का शेष जीवन, अपने जीवन से अधिक प्रतीत होने लगता है।
१२-अब हर घटना कहीं दुर्घटना ना हो जाए, भय लगने लगता है परन्तु ज़रा से बचे जीवन से प्यार ज़्यादा होने लगता है। बचे खुचे जीवन को लंबा करके बचाए रखने की इक्छा अनायास प्रबल होने लगती know
१३- हर समय विचार आता रहता है कि क्या कहूं, किससे कहूं, क्या कोई हमें सुनने में इक्षुक है, हमारी बातों को हास्य में ना लेले,। सोच कर चुप हो जाता हू। फिर सोचा कुछ लिख दू, फिर लगा कौन देखे ग। कौन समझेगा, कौन समझाए गा ।
— अनूप कुमार श्रीवास्तव