धरती की आस
धरती के मन में थी एक आस ।
वो व्याकुल थी भारी, लगी प्यास ।।
झुलस -झुलस काया हुई बंजर ।
बिरहन हृदय में चलते खंजर ।।
पुलकित हो ईश्वर से ध्यान लगाया ।
दुःखी धरा ने मनचाहा वर पाया ।।
धरती की खाली झोली भर दी ।
सूखे तन पर जलधार दी ।।
भीगा धरा का अंग- अंग ।
बहे नदिया धारा- हिलोरें संग- संग ।।
पृथ्वी हो गई हरी-भरी ।
नदी, पेड़ ,पर्वत लगें मनोहारी ।।
पशु-पक्षी, कीट- पतंगे गाते प्रेम गीत ।
मेंढक, झींगुर रातों को बजाते संगीत ।।
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा