कविता

धरती की आस 

धरती के मन में थी एक आस ।

वो व्याकुल थी भारी, लगी प्यास ।।

झुलस -झुलस काया हुई बंजर ।

बिरहन हृदय में चलते खंजर ।।

पुलकित हो ईश्वर से ध्यान लगाया ।

दुःखी धरा ने मनचाहा वर पाया ।।

धरती की खाली झोली भर दी ।

सूखे तन पर जलधार दी ।।

भीगा धरा का अंग- अंग ।

बहे नदिया धारा- हिलोरें संग- संग ।।

पृथ्वी हो गई हरी-भरी ।

नदी, पेड़ ,पर्वत लगें मनोहारी ।।

पशु-पक्षी, कीट- पतंगे गाते प्रेम गीत ।

मेंढक, झींगुर रातों को बजाते संगीत ।।

— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

नाम - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा एम.ए., आई.डी.जी. बाॅम्बे सहित अन्य 5 प्रमाणपत्रीय कोर्स पत्रकारिता- आर्यावर्त केसरी, एकलव्य मानव संदेश सदस्य- मीडिया फोरम आॅफ इंडिया सहित 4 अन्य सामाजिक संगठनों में सदस्य अभिनय- कई क्षेत्रीय फिल्मों व अलबमों में प्रकाशन- दो लघु काव्य पुस्तिकायें व देशभर में हजारों रचनायें प्रकाशित मुख्य आजीविका- कृषि, मजदूरी, कम्यूनिकेशन शाॅप पता- गाँव रिहावली, फतेहाबाद, आगरा-283111