वो आवाज़ जिसमें प्यार था
हो गई खामोश वो आवाज़ जिसमें प्यार था
थी नसीहत और अपनापन मिला हर बार था
इस तरह जाना अखर सबको रहा जो भी मिला
हो गया उनका,स्वयं भी पुष्प सा बन कर खिला
वो ग़ज़ल की मल्लिका,रानी तरन्नुम की रहीं
नज़्म उनके थे अलग,जो भी कहीं उम्दा कहीं
वो दुआएं उनका देना, खुश रहें, अच्छे रहें
अब कहां आवाज़ आये,दर्द हम किससे कहें
दूर इतनी वो गईं, आवाज़ अब ना आएगी
बज्म में होंगे सभी आंखें ना उनको पाएंगी
हम कहेंगे और उनकी दाद अब भी पाएंगे
तहत में पढ़ लें,तरन्नुम में अगर कुछ गायेंगे
उन विरामों से विदा ले,पूर्णता में ढल गईं
आप अपने “अल्प” को भी पूर्ण” करके चल गईं
“मां” यहीं सब सोचकर जाता कलेजा मेरा कांप
चांद होगा, सूर्य होगा, बस नहीं होंगी तो आप
— प्रताप शंकर दुबे “प्रताप”