गीत
नैन धोते आज मन से,हो विकल सब वेदनाएं।
खण्ड में बटने लगी है, व्यक्त हो संवेदनाएं।
रक्त रंजित अश्रुओ को, प्रीत का उपहार देना,
प्रत्र में है प्रेम मेरे,मीत पढ़ कर प्यार देना।
प्यास की परिधि में देखो, जल तुम्हें अर्पण करूं मैं ।
नैन के अधिकृत जलधि को, अर्ध्य दे तर्पण करूं मैं।
हो विवश अब भावनाएं,ऑंख से करती मिचौली,
काॅंध पर बिखरे जो अश्रु,मीत उनको झार देना।
व्रण सारे हो अलंकृत,गुथ गये है मालिका में।
वर्जनाएं देह की है, श्वास की इस तालिका में।
पीर भी अभिषेक करता,नेह की गंगा जली से,
हर्ष का प्रतिरूप बनकर,तुम नयी सी धार देना।
इस शिथिलता में रहो तुम, प्रेम का उत्कर्ष बन के।
उर पयोनिधि पर सजो तुम, चन्द्र का आकर्ष बन के,
तुम मिलो तो पूर्ण हो सब,प्रेम की संभावनाएं,
इस अधूरे शब्द को तुम,अर्थ का नव सार देना।
— कामिनी मिश्रा अनिका