गीत
सत्ता हो तुम ,मैं जनता हूँ, सो मैं तुमको याद नही हूँ ।
कुर्सी चढ़कर मुँह मत फेरो ,मैं चौथी का चाँद नही हूँ ।
जिस पातक से फेर रहे मुँह ,भार तुम्हारा वो सहता है।
कभी नही यह भूलो साहब, बूँद बूँद से घट भरता है ।
मै भोली भाली भाषा में प्रेमभरी बातें कहता हूँ ,
राजनीति के गलियारों का मैं कोई अपवाद नही हूँ।
कुर्सी चढ़कर मुह मत फेरो……………………
हो सकता है मेरे तन में मैल पसीने की बदबू हो।
और आपके कुत्ते के भी तन पर एक नई खूशबू हो।
मगर हमारे मन में कोई मैल नही रहता है साहब !
‘मुँह में राम बगल मे छूरी ‘ साहब मैं जल्लाद नही हूँ।
कुर्सी चढ़कर मुँह मत फेरो……………………..
साहब ! अपनी थोड़ी इज्जत ,बस उसकी खातिर मरते हैं।
आप लोग बड़का बाबू हैं ,रोज बात बदला करते हैं ।
बदल बदल ,दल ,राजनीति को एक नया आयाम दिया है,
मैं कैसे पाले को बदलूँ ,बंदर की औलाद नही हूँ।
कुर्सी चढ़कर मुँह मत फेरो…………….
— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी