कविता

ओ, चंदा !


ओ चंदा, यूँ ना इतराओ
हम इतने मजबूर नहीं
इक दिन तुमसे मिल आएँगे
इतने भी तुम दूर नहीं

तुमसे हम सब इंसानों का
नाता बड़ा पुराना है
मनमानी करते हो हरदम
तुमको यही सुनाना है

जब मन करता आ जाते हो
बिना कहे चल जाते हो
तीज त्योहारों पर गुम होकर
सबको बड़ा सताते हो

इतराते हो जब करवा पर
ईंतजार करवाते हो
छिप जाते हो बदली में तुम
मन ही मन मुस्काते हो

पर हमने अब मन में ठानी
दूरी सभी मिटायेंगे
चाहे जो भी जतन करें
पर तुमसे मिलने आएँगे

देखो हमने पूर्ण किया अब
आज ये अपना वादा है
छूकर तुमको जग को बतलाया
क्या अपना इरादा है

माप चुके हम दूरी तुम्हारी
आगे बढ़ते जाना है
सत्य अहिंसा का परचम
अब तारों पर फहराना है

— राजकुमार कांदु

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।