गांधीवादी दर्शन का सामग्र अवलोकन
स्वतंत्रता आंदोलन के समय गांधी जी ने एक बार स्वयं कहा था “गांधीवाद जैसी कोई चीज नहीं है” मेरे द्वारा किए गए कर्म ही मेरे विचार हैं। गांधी जी ने स्वयं एक बार पुनः कहा “गांधी मर सकता है परंतु गांधीवाद सदैव जिंदा रहेगा।”गांधी जी के इस अभिकथन से अभिसिंचित होता है कि गांधीवादी दर्शन स्वयं में विरोधाभासो का अनुपम समिश्रण है। गांधी जी ईसाइयों की प्रसिद्ध पुस्तक “सरमन माउंटेन” नामक अध्याय से बहुत ही प्रभावित थे। लियो टाल्सटाय की पुस्तक से उन्होंने दार्शनिक अरजकतावाद का सिद्धांत ग्रहण किया था। जिस प्रकार से व्यक्तिवादी विचारधारा के अनुसार “राज्य एक आवश्यक बुराई है” दार्शनिक अराजकतावादी विचारक इससे एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि “राज्य एक अनावश्यक बुराई है” व्यक्ति के कार्यों में राज्य का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। इसी कारण से गांधी जी राज्य को संगठित हिंसा मानते थे । इसे एक आत्महीन यंत्र मानते थे। गांधीजी राज्य के उन्मूलन के पक्ष में थे। अर्थात् राज्य विहीन समाज की वकालत करते थे। उनका राज्य विहीन समाज राम राज्य कहलाता है। गांधी जी के ऐसे ही विचारों को दार्शनिक अराजकतावाद कहा जाता है। गांधी जी राम राज्य को दार्शनिक स्तर पर तो स्वीकार करते हैं परंतु व्यावहारिक स्तर पर नहीं स्वीकार करते। वह राज्य को एक आदर्श व्यवस्था के रूप में मानते है। जिसे यथार्थ में नहीं पाया जा सकता इसलिए गांधी जी के व्यवहारिक स्तर पर राज्य के समर्थक भी हैं ।गांधी जी का व्यावहारिक राज्य अहिंसक राज्य कहलाता है। गांधी जी मूलतः व्यक्तिवादी विचारधारा के समर्थक है अतः वह व्यक्तिवादियों की तरह न्यूनतम राज्य की वकालत करते हैं। दार्शनिक विचारक थोरों की तरह गांधी जी भी मानते हैं कि “वही सरकार सबसे अच्छी है जो सबसे कम शासन करें” गांधी जी के अहिंसक राज्य को ग्राम गणराज्य भी कहा जाता है। गांधी जी प्रशासन की इकाई गांव को मानते हैं वे सत्ता के विकेंद्रीकरण के पक्ष में भी हैं। इसलिए पूरे देश में ग्राम पंचायत का जाल बिछाना चाहते हैं। गांधी जी राजनीति के आध्यात्मिककरण के पक्ष में थे। उनका कहना था कि “धर्मविहीन राजनीति वेश्या के समान है” राजनीति में चरित्र और नैतिकता का समावेश होना अति आवश्यक है।गांधी जी निजी संपत्ति का समर्थन तो करते हैं लेकिन वह अरस्तु की तरह संपत्ति के स्वामित्व को तो मानते हैं परंतु सार्वजनिक उपभोग की बात करते हैं ।इसलिए गांधी जी के अनुसार अपनी संपत्ति का स्वामित्व होना चाहिए लेकिन इसका स्वामित्व न्यासाधारिता के रूप में होना चाहिए। उसे अपनी संपत्ति ना मानकर जनता की संपत्ति मानना चाहिए तथा इस संपत्ति का संरक्षक मानना चाहिए इसी को ट्रस्टशिप का सिद्धांत कहा जाता है। संक्षेप में पूंजीवादी जनता के संपत्ति का संरक्षक न्यासाधारक ही होता है। पूंजीपतियों को इस संपत्ति को अपनी आवश्यकता अनुसार ही उपभोग करना चाहिए। आवश्यकता से अधिक नहीं। गांधी जी अपने ट्रस्टशिप के सिद्धांत के द्वारा पूंजीवाद को एक मानवीय चेहरा भी प्रदान करते हैं।
— सत्य प्रकाश सिंह