पिता… माँ होने तक”
“धरा नहीं जो धारण कर ले… आसमान है पिता ,बरसता है नेह बनकर दूर से चुपचाप….”
पिता होना माँ होने से कहीं अधिक कठिन होता है…। यह अनुभव का विषय है जिसे केवल उसी धरातल पर अनुभव किया जा सकता है जहाँ दुनिया भर के पिता खड़े हैं अनाभिव्यक्ति के निर्जन तट पर… । माँ सौभाग्यशाली है कि उसके पास अभिव्यक्ति है, वह मुखर है… निकट है, शिशु के भ्रूण होने की प्रक्रिया से किशोर होने तक और उससे भी कहीं आगे तक वह उससे जुड़ी है। पिता आश्रित है माँ के कहने ,बताने पर, वह जानना चाहता है, जताना चाहता है, अपने ही अंश की धड़कनों को अनुभव करना चाहता है पर झिझकता है अपने हाथों की कठोरता को अनुभव कर,अपने पुरुष होने को अनुभव कर, उसे लगता है कि अभिव्यक्ति उसे कमज़ोर साबित कर सकती है और इन्हीं वर्जनाओं के भंवर में घिरा… मूक रह जाता है।
हस्पताल से लौटने के बाद कौस्तुभ बहुत अनमने थे। आज नित्या का चैकअप होना था। अस्थिरोग विशेषज्ञ ने कुछ टेस्ट करवाने की सलाह दी थी, और अगले अप्वाइंटमेट की तारीख़ भी। मुग्धा अपरिहार्य साहित्यिक सेमिनार के सिलसिले में शहर से बाहर थी। कितना टालना चाहा पर टाल न सकी थी।
कौस्तुभ के हस्पताल पहुँचने से पहले ही उसका मन वहाँ उपस्थित था…। पूरे समय वहीं बनी रही थी।
पौने नौ बजे के करीब मुग्धा ने कौस्तुभ को टेक्सट किया- “हस्पताल किस समय? “
“बस निकल रहा हूँ”-कौस्तुभ ने लिखा।
उसके बाद मुग्धा ने कई फ़ोन किए यह कहने को कि सब अच्छे से हो परन्तु रास्ते में होने के कारण कौस्तुभ जवाब न दे सके।
वह भी दिन भर के लिए व्यस्त हो गई अथवा यूँ कहिए कि उसकी हालत उस कबूतर जैसी थी जो अन्य कोई चारा न देख बिल्ली के आने पर आँखें बंद कर लेता है। वरना कोई कितना भी व्यस्त क्यों न हो अपने अपनों और अपनी अभिरुचियों के लिए वक़्त निकाल ही लेता है। उसका संवेदी मन न अनिष्ट की आशंका जताना चाहता है न सुनना ही चाहता है।
बीच बीच में वह फ़ोन देख लेती है कि कहीं कौस्तुभ ने कोई मैसेज तो नहीं छोड़ा…। परेशानी के भाव उसके मस्तक पर साफ झलक रहे हैं। बेचैनी है कि बढ़ती ही जाती है। दो मिनट भी नहीं हुए, उसने फिर फोन चेक किया, लेकिन निराशा ही मिली, अंततः उसने फोन फोन रख दिया।
पौने तीन बजे के करीब कौस्तुभ का मैसेज आया ।
“19 का अप्वाइंटमेंट दिया और कुछ टेस्ट लिखे हैं।”
“अच्छा।” – उत्तर में मुग्धा ने बस इतना ही लिखा। वह जान गयी कि इस समय कौस्तुभ अनमने हैं और शायद उदास भी। उनकी हाँ, हूँ और कम से कम शब्दों में उत्तर देने से उनके मन की दशा दीख जाती है।
नित्या जब नौ महीने की थी तब वह बेड से गिर गयी थी। सिर फूल गया, कौस्तुभ ड्यूटी से आए तो मुग्धा को अजीब सी घबराहट थी, वह जानती है कि नित्या में उनकी जान बसती है, कितना भी थक-हार कर आए, जब तक नित्या को गोद में उठा न लें, उन्हें चैन नहीं मिलता। जैसे-जैसे कौस्तुभ के घर आने का समय हो रहा था, मुग्धा कि चिंता और घबराहट बढ़ने लगी। कौस्तुभ आए तो मुग्धा ने झूठ बोल दिया कि करवट लेते हुए दीवार में सिर लग गया। कौस्तुभ गाड़ी निकाल उसे हॉस्पिटल लेकर गए। डॉ. ने सी. टी.स्कैन किया और बोला कि आप भाग्यशाली हैं जो इसे चोट लगी वरना इस बीमारी का पता भी न चल पाता ये जो रोग है मेडिकल साइन्स में इसे हाइड्रोसेफालस कहा जाता है। जिसमें ब्रेन में बनने वाला अतिरिक्त फ्लूइड स्पाइनल कॉर्ड के रास्ते निकलना बंद हो जाता है। यही कारण है कि नौ महीने की होने पर भी वह अभी बैठ भी नहीं पाती, इसके माइलस्टोन बहुत धीमे हैं।
डॉ ने काफी कोशिश की कि दवाओं से ही समाधान हो जाये लेकिन पूरी तरह असफल रहे, इस बीच कौस्तुभ ने शहर के तमाम नामीगिरामी न्यूरो-सर्जन से कंसल्ट किया, अंततः ऑपरेशन ही एकमात्र विकल्प बचा था। शहर के वरिष्ठ,सफलतमऔर प्रसिद्ध डॉ ने सफल ऑपरेशन किया। ब्रेन में स्टंट डाला गया जिसकी नली को पेट में छोड़ दिया गया। जिससे उसका एक्स्ट्रा फ्लूइड दिन में तीन बार नियत समय पर स्टंट को दबा कर निकाला जा सके।
अब कौस्तुभ की दिनचर्या में एक यह काम भी जुड़ गया, इस घटना के बाद से उन्होने जॉब के टूर पर जाना लगभग बंद कर दिया। एक पिता में माँ का जन्म हुआ जो तीव्रता से परिपक्व माँ, स्नेहिल माँ मे तब्दील होने लगा।
अभी नित्या एक साल की भी नहीं हुई, दीवाली की रात से दो दिन पहले से होने वाली आतिशबाज़ी, पटाखों के प्रदूषण से उसकी सांस उखड़़ने लगी, कौस्तुभ ने उसे फिर से एड्मिट किया, दिवाली की रात बड़ी भयानक थी, आक्सीजन मीटर की कम ज्यादा होती रफ्तार कौस्तुभ की सासों की गति को भी अस्थिर किए थी, अब यह हर साल का क्रम बन गया, जब भी दिवाली नजदीक होती नित्या की सांसें उखड़ने लगती, उसका ऑक्सिजन लेवल कम हो जाता।
मित्र और परिचित तरह- तरह की सलाह देते, कोई कहता महानगर के प्रदूषण से दूर ले जाओ बच्ची को, कोई कहता हिल स्टेशन ले जाओ, मुग्धा सबकी चुपचाप सुनती पर उसको कहीं लेकर जाने के नाम पर दम न भरती…। कोई उसके मन में उतर कर देखता तो जानता कि वह क्यों नहीं जाना चाहती…। वह माँ है उसकी, उसको एक-एक पल अपने भीतर जिया है उसने, उसका वश चले तो अपनी जान के सदके उसका हँसता खिलता बचपन लौटा दे उसे…, पर वह कौस्तुभ को यूँ अकेला छोड़ न जा पाएगी, नित्या तो यूँ भी…।
कौस्तुभ हैं तो नित्या और भी आ सकती हैं। किसी भी स्त्री को यदि बच्चे और पति में से किसी एक व्यक्ति का चयन करना हो तो निश्चित रूप से वो उसका पति ही होगा।
क्या कुछ नहीं कहा गया उसे पर उसने अपने मन की ही सुनी। जब कभी मुग्धा सोचती तो सिहर जाती, कौस्तुभ भी तो हर पल उसके साथ खड़े रहे थे, कभी कोई शिकायत दर्ज़ नहीं की उससे कभी शारीरिक कमी को सहानुभूति का जरिया न बनाया बल्कि सामान्य दीखने के चक्कर में हमेशा सामान्य से भी अधिक कार्य करते रहे ।
तीन महीने पहले नित्या को बिटामिन डी की कमी से रिकेट्स हुआ। जिसमें उसके पैर टेढे़ हो गए। एक बार फिर कौस्तुभ बेचैन थे, उनकी धड़कने अस्थिर होने लगी, रक्तचाप पहले से काफी कम। फिर से अस्पताल के चक्कर, डॉ का इलाज, कौस्तुभ बिना थके जॉब, और नित्या के इलाज, उसकी एक्सरसाइज़ सब एक साथ कर रहे थे। पिछले महीने वह बेहोश हुई, अट्ठारह घण्टे तक उठी नहीं। सब सोचते रहे कि शायद दवा के असर से नींद है लेकिन शाम तक कौस्तुभ का धैर्य जवाब दे गया। उसे एमरजेंसी में एडमिट किया गया, डाक्टर ने बोला- ब्रेन में इंफेक्शन है। लगता है स्टंट ने अपना काम करना बंद कर दिया, जिससे फ्लूइड की निकासी रुक गयी, शायद ब्रेन पर प्रेशर बढ़ने से उसे दौरे आए, और वह बेहोश हो गयी, हम पूरी कोशिश कर रहे हैं लेकिन शायद दुबारा ऑपेरशन करना पड़े।“
दुबारा ऑपरेशन के नाम से कौस्तुभ के मन मे सिहरन हुई, उन्होने निर्णय में देरी न करते हुए वहाँ से छुट्टी कराई और शहर के नामी-गिरामी अस्पताल का रुख किया, वे अच्छे से जानते हैं कि जिसने इस बच्ची को पहले जीवनदान दिया, वही डॉ फिर से मसीहा बन उसकी रक्षा करेगा। दो दिन तक दौड़-धूप की तब कहीं जाकर डॉ ने मुआयना किया। पाँच घंटे से ज्यादा समय लगाकर डॉ ने कहा-“ब्रेन में कुछ गड़बड़ नहीं है, हमने एक्सरे और सी.टी. स्कैन की रेपोर्ट्स का गहन अध्ययन किया है, आप बेफिक्र होकर इसे घर ले जाएँ, एक गोली लिख रहा हूँ जिसकी आधी डोज़ दिन में तीन बार दीजिये, जब कभी कोई परेशानी लगे तुरंत यहाँ ले आइये, और हाँ, एक बात का ध्यान रखिए- प्राइवेट अस्पतालों का पूरा बिज़नस ही मरीज़ को डराकर पैसा उघाने पर खड़ा है, छोटी बच्ची है, आगे से ऐसा रिस्क न ही लें।“
कौस्तुभ को ज़रा तसल्ली हुई। वे नित्या को घर ले आए, परन्तु बाकी डेफिशियंशीज़ का अभी भी इलाज करा रहे हैं।
कौस्तुभ अब शहर के नामी गिरामी बिल्डर हैं और उनका लिफ्टिंग का साइड़ बिजनेस भी अपने उत्कर्ष पर है, नौकरी छोड़े हुए उन्हें उतना ही समय हुआ है जितना नित्या की ब्रेन की समस्या को, उन्हें ये साफ समझ आ गया कि इस तरह कि समस्याओं से जूझने में नौकरी से बहुत कुछ हासिल नहीं किया जा सकता।
समाज में, बाहर उनके रोबीले व्यक्तित्व का डंका बजता है तो घर में वे उतने ही सहृदय भी हैं उनके पास एक उजास मन है जिसके आर-पार देखा जा सकता है! एक व्यापारी में ऐसे गुण दुर्लभ ही होते हैं ।
मुग्धा की हिम्मत न हुई कि मैसेज पर बात कर सके। फ़ोन पर बात करना तो और भी कठिन होगा! परन्तु शाम तक वह अपने आप को तैयार कर लेगी ,यही सोचकर वह आश्वस्त है। वह अक्सर ऐसा ही करती है। जब कभी भी स्थिति असहज होती, या फिर एक लंबा मौन उभर आता है वह सुनती रहती है उधर से कौस्तुभ हेलो-हेलो करते रह जाते हैं फिर जब यह भी असह्य हो जाता है तो वह फ़ोन रख देती है और अपनी दशा और बातों की दिशा बदल बात शुरू करती है।
शाम के आठ बजे उसने दो बार कौस्तुभ को फ़ोन मिलाया और कनेक्ट होने से पहले ही डिस्कनेक्ट कर दिया। तीसरी बार उसने हिम्मत न हारी और कॉल कनेक्ट हो गई, उसका अंदाज़ सही निकला कौस्तुभ सचमुच बहुत ही अनमने थे नित्या को लेकर।
पूछने पर बताया – “हाँ, उसके भविष्य को लेकर चिंतित हूँ, पता नहीं क्या होगा!”
“कुछ नहीं होगा कौस्तुभ।”
“सुनो मुग्धा! मैं नहीं चाहता कि इतिहास स्वयं को दोहराए। “
“वह एक जीवट और बहादुर पिता की बेटी है । “
“वो सब ठीक है मुग्धा! पर नयी पीढ़ी में संघर्षों का माद्दा ही कहाँ रह गया है,
हर चीज़ में मिलावट है यही कारण है ऊर्जा की कमी से भी जूझ रही है ये पीढ़ी। “
“सब अच्छा ही होगा, ईश्वर पर भरोसा है मुझे।”
“तुम्हारे ईश्वर से बहुत शिकायतें है मुझे।”
“यकीन मानिए ईश्वर के फैसले हमारी इच्छाओं से हमेशा बेहतर ही होते हैं।”
कौस्तुभ एक गहरी श्वास छोड़ते हैं… प्रकृतिवादी जो ठहरे।
मुग्धा की आंखें डबडबा आई परन्तु उसे नियंत्रण करना भी बख़ूबी आता है। उसे याद है कौस्तुभ ग्यारह माह के हृष्ट -पुष्ट अबोध शिशु ही थे जब बैरी पोलियो ने उन्हें अपनी गिरफ्त़ में ले लिया था और फिर अगले एक दशक पेट के बल सरककर चलना ही उनकी नियति बन गई थी।
पहली ही मुलाकात में मुग्धा कौस्तुभ से बहुत प्रभावित हुई थी, प्रथम दृष्टया ही उसने कौस्तुभ को जीवनसाथी बनाने का निर्णय कर लिया था, चाय के दौरान ही अपना अतीत मुग्धा को बताते-बताते कौस्तुभ कितने भावुक हो गये थे। चारपाई पकड़ कितनी तेज़ी से उसके चारों ओर चक्कर काट जाते थे। यह देख मौहल्ले भर की बड़ी बुजुर्ग औरतें कई बार तो माँ को डांटने वाले लहज़े में कहती-, कमला ! नज़र लग जाएगी इसे। तनिक काला टीका लगा दिया कर। तब माँ हँसकर कह देती- वह तो खु़द ही काजल जैसा है उसे क्या नज़र लगेगी?” कहाँ मालूम था नियति का दुष्चक्र…।
परन्तु मुग्धा ने कौस्तुभ की जीवटता को भी जिया है वह साक्षी है कि कैसे कौस्तुभ अपना हर काम स्वयं करते हैं यहाँ तक की अपनी चाय बनाते हैं तो मुग्धा से भी पूछ लेते हैं, शुरू में तो मुग्धा को अच्छा नहीं लगा था,वह असहज भी हुई थी यह सब देख, जब एक बार उसे बाज़ार से लौटने में देरी होने और भूख लगने पर कौस्तुभ ने न केवल अपना खाना बनाकर खा लिया बल्कि उसके लिए भी बनाकर रख दिया।
अगले कुछ दिनों उसे अपराध बोध सालता रहा था… बाद में जब कौस्तुभ ने यह नोटिस किया तो कितने प्यार से समझाया था उसे ।
उनकी दोनों हथेलियों के बीच मुग्धा का चेहरा था और कौस्तुभ कह रहे थे-“
सुनो! स्त्री-पुरुष गाड़ी के दो पहिए होते हैं मेरी मुग्धे! एक पर भी अधिक भार नहीं ।
उस क्षण उसने अनुभव किया जैसे वह कोई बच्ची हो… आज भी वह स्पर्श हाल के निकले मक्खन की तरह ताज़ा है उसके स्मृति कोष में…
दरअसल वह एक ऐसे परिवार से थी जहाँ पुरूषों में अहम कूट-कूट कर भरा था…
उसे कुछ वाक्य याद हो आते हैं-, “ये आदमियों का काम नहीं हैं, अब ये औरतों वाले काम भी करने पड़ेंगे? पिता अक्सर माँ से कहते थे ।जब तक ताई जी जीवित थी वे अक्सर डांट देती थी पिता को-, “नहीं तुम क्यूँ करोगे लाल्ला जी !पड़ोस में से बुला लेंगे किसी को”
ऐसी ही जाने कितनी और घटनाएं थी जिन पर कौस्तुभ का स्नेह पी.ओ.पी. की परतों -सा चढ़ गया था और मितभाषिणी मुग्धा मुखर और फिर वाचाल होने लगी थी।
अभी शाम के समय रसोई से बरतनों की आवाज़ आने पर वो जान जाती है कि” कौस्तुभ द सेफ़” अवश्य ही चाय बना रहे हैं, एक कप मेरे लिए भी कौस्तुभ पीछे – पीछे वह भी रसोई में चली आती है।
पता है कौस्तुभ, मेरे ताऊजी जी आल्हा गाते थे!
वह कौस्तुभ को छेड़ती है ।
“हाँ, याद है -, ” बाँदी ल्यादै ऐसा नर
पीर,बावर्ची, भिस्तीखर ।
सर- सर करकै बाँदी निकली,
जैसे नाग बमी को जाए ।
कौस्तुभ अपने सुरीले कंठ से गाकर सुनाते हैं तो चाय की मिठास बढ़ जाती है और वातावरण की गरमाहट भी,
खुद्दार ,जीवंत, बेबाक, बिंदास, कर्मठ विशेषणों की पूरी फौज़ बाहें फैला दौड़ती है कौस्तुभ की ओर…
वे कभी किसी की दया के मोहताज न थे, न हैं और न ही कभी होंगे।
उसे दो पंक्तियाँ याद हो आई
“तारीखों के भंवर गहरे बहुत थे,
संभाले रखी तबियत से पतवार हमने भी…”
उसे कौस्तुभ पर स्नेह उमड़ आया। वह आँखों की कोरों से छलक आए आँसू पोंछ, खंखार कर रुंधे गले को साफ़ कर, सहज होते हुए बोली –“कौस्तुभ! वह एक जीवट पिता की बेटी है एक ऐसे पिता की – जिसको किसी भी विषमता ने कहाँ रोक रखा है ! उसने संघर्षों की छाती पर खम ठोक रखा है। वह तो फिर भी उछलती है, कूदती है और नृत्य करती है, मुझे उसके पैरों की थिरकन, चेहरे पर कानों तक फैली मुस्कान और भीतर के उछाह में तालमेल दीखता है कौस्तुभ! और मेरे आश्वस्त होने के लिए यही काफ़ी है देखना, एक दिन दौडे़गी नित्या, नदी का रुख मोडे़गी हमारी नित्या।”- कहते- कहते उसका गला फिर भर आया, खुद को संयत कर वह पुन: बोली- “वो कहते हैं न- यदि आस्था है तो बंद द्वार में भी रास्ता है।”
अब उसने महसूस किया कि कौस्तुभ शांत-प्रशांत से हैं न धड़कनों की असामान्य गति, न कोई गहरी लंबी श्वास, बस एक मौन है गहराता हुआ-सा। इससे पहले की मौन और गहरा हो उसने मुस्काते हुए कहा- “शुभरात्रि मेरे प्यारे कौस्तुभ।”
और फ़ोन के रेड़ आइकन को टच कर अलग रख दिया, आँखों के सैलाब को अब वह रोकना नहीं चाहती थी।