ग़ज़ल
प्यार, उल्फ़त या मुहब्बत, ये जवानी तो नहीं।
मैं जिसे दोहरा रही, तेरी कहानी तो नहीं।।
वो जो बिछड़ा रो दिए, जो मिल गया तो हंँस पड़े।
यूंँ ही खोना ज़िंदगी, बातें सयानी तो नहीं।।
भूल कर ख़ुशियों को, रोने की तरफ़दारी करे।
हर दफ़ा दे दे सफाई, इतना ज्ञानी तो नहीं।।
लाख नेमत तुझपे, बरसा दी ख़ुदा ने याद रख।
क्यूँ उसे भूला, ये तेरी हक़ बयानी तो नहीं।।
है खुला सा आसमाँ, सूरज, ये धरती, चंद्रमा।
क्यों नज़र इनपे न डाले, आँख कानी तो नहीं।।
इस जहांँ में उस ख़ुदा का, ही तो तू भी अंश है।
पोंछ ख़ुद को फिर बता, तू उसका सानी तो नहीं।।
सौप कर ख़ुद को ख़ुदा को, सुन ‘किरण’ बेफ़िक्र जी।
फ़िक्र में सांँसे चले, ये ज़िंदगानी तो नहीं।।
— प्रमिला ‘किरण’