कुली
नींद तो नहीं कह सकते, ज़रा सी झपकी लग गई थी। बुरा सपना था, एक अजीब सी आकृति, कटे हुए हाथ के साथ, खड़ा है एक अपाहिज शरीर। अचानक शोर से सपना टूटा।
ट्रेन प्लेटफार्म पर आकर रुकी ।इस स्टेशन पर आकर रुकने वाली आज की यह अंतिम ट्रेन थी।
यात्री, एक-एक कर, ट्रेन से उतरने लगे। मैं बड़ी उम्मीद से हर यात्री को देख रहा था, कोई यात्री पुकारेगा – “कुली–ई –ई — या इस बार भी निराशा ही हाथ लगेगी ।
ट्रेन से एक साहेब उतरे।मात्र एक सूटकेस और थैलानुमा एक बैग। जब वह ट्रेन से उतर रहे थे तो लग रहा था उनके पैर में कोई तकलीफ है, उसकी पीड़ा उनके चेहरे के हाव-भाव से लग रही थी। ट्रेन से उतर कर वह खडे हो इधर -उधर देखने लगे।
“साहेब, कुली चाहिए?” एक उम्मीद मेरी आँखों में जगी।
“नहीं भाई, मुझे जरूरत नहीं है कुली की।”
वे सूटकेस को व्हील पर खींचते हुए आगे बढ़ गये, मुझे लगा वो व्हील नहीं मेरे दोनों कटे हाथ हैं , और यहाँ खड़ा है,मेरा अपाहिज शरीर।
— सुनीता मिश्रा