मनुष्य और प्रकृति
न हवा शुद्ध है
न पानी शुद्ध है
न धूप शुद्ध है
न छांव शुद्ध है
मनुष्य के स्वार्थ ने
धरती पर कुछ भी शुद्ध न छोड़ा
प्रकृति को तहस-नहस करके
विकास का राग अलापता है ।
नित बढ़ रहा प्रदूषण का साम्राज्य
ग्लोबल वार्मिंग की लपटों से जल रही धरा
भूजल के अति दोहन से निचोड़ ली धरा
अंधाधुंध वृक्षों की कटाई से उजाड़ दी धरा
रे मनुष्य !
तेरे स्वार्थ की न सीमा कोई…?
तूने बना दिए महाविशाल अति घने कंक्रीट के जंगल
जिनके बोझ से दबी जा रही है धरती
समय रहते जाग मनुष्य
ले विवेक से काम
प्रकृति दे रही संकेत
समय अभी भी तेरे हाथ
चेत जा मनुष्य
न कर प्रकृति से खिलवाड़
भविष्य को सुरक्षित- सुखमय बनाने
कर प्रकृति से प्यार ।।
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा