गजल
हमारे जन्म से कर्तव्य का जन्मों का नाता है
कराने बोध कर्मों का हर इक मन में विधाता है
उसे हम आत्मा परमात्मा जो भी कहें लेकिन
हमारे तन में रहकर हमसे ही छिपता-छिपाता है
वो जिसने जग बनाया है वो ईश्वर है मगर वो खुद
निरन्तर अपने कर्ताभाव से बचता-बचाता है
बिना आसक्ति के हर कर्म को अंजाम जो देता
उसे हर कर्म में निष्काम ही का भाव आता है
न बन्धन में बँधे वो और ना ही मोह में डूबे
वही करता है वो उससे विधाता जो कराता है
यकीनन प्राप्त उसने कर लिया है ज्ञान का वो तत्व
निखरकर और ज्यादा इम्तहानों से वो आता है
कि उसके वास्ते कोई न छोटा या बड़ा है ‘शान्त’
वो सबसे प्यार से मिलता है हँसता-मुस्कराता है
— देवकी नन्दन ‘शान्त’