कुल्हाड़ी किसने मारी?
“अरे आप बहुत जल्दी लौट आये सैर से।”पत्नी ने पूछा
“उफ़! बाहर धुंध, धूल, धुँआ ने कालिमा पोत रखी है फिज़ा में। साँस नहीं ली जा रही, दम घुट सा रहा था।”
“सही कह रहें हैं आप। अब सड़कों पर आदमी नहीं चलते, गाड़ियाँ रेंगती हैं। फैक्ट्री और इन गाड़ियों से निकलते केमिकल्स हवा में ज़हर घोल रहें हैं। बड़ी-बड़ी इमारतों ने ताजी हवा कैद कर ली।”
“बची-खुची कसर पराली पूरी कर रही है। पहले दिल्ली ऐसी नहीं थी। हम लोग इंडिया गेट तक सैर को निकल जाते थे, नवम्बर की हलकी सर्दी गुदगुदाती थी शरीर को। खुशबू -भरी हवा से पेड़ झूमते थे। तीन -चार किलोमीटर की वाक तन-मन में स्फूर्ति भर देती थी।अब वो दिल्ली नहीं रही, सारे पेड़ इमारतों की बलि चढ़ गये।” कहकर उन्होंने एक लम्बी साँस खींचने की कोशिश की।
“कुल्हाड़ी किसने मारी?” पत्नी विरक्त भाव से बोली।
— सुनीता मिश्रा