कविता

मेरी कविता रहने दो

मुझसे सारा सागर ले लो

प्रेम की धारा बहने दो

सारी दौलत छीन लो लेकिन

मेरी कविता रहने दो    !  

मैंने कब रोका है तुमको

ख़ूब करो अपने मन की

लेकिन मैं खामोश रहूँ क्यों  ?

मुझको मेरी कहने दो  !

मैं तुम-सा कमज़ोर नहीं हूँ

मैं कविता का प्रेमी हूँ

बहुत बड़ा दिल रखता हूँ

दुनिया के दु:ख सहने दो । 

दुनिया है पत्थर का टुकड़ा 

इसका लालच क्या करना  ? 

प्यार-भरा दिल हीरे जैसा

सबको ऐसे गहने दो । 

मैं सबका हूँ सब मेरे हैं

मेरा तो सिद्धान्त यही

मैंने तो अपनी कह दी

उनको भी तो कहने दो । 

तुमसे वो ना कही गयी 

बाक़ी क्या-क्या कहते हो  

अब भी ना कह पाओगे

जाओ, हटो तुम रहने दो । 

झील-नदी और दरिया-सागर

मेरा सब कुछ मुझमें ही

मैं कहता हूँ सुन भी लो

खिलकर मुझको बहने दो । 

मैंने भी तो ख़ूब सहे हैं

तीर उलाहने-तानों के

हल्की मेरी सोच नहीं है

और अभी कुछ सहने दो । 

बोझ तुम्हारे अहसानों का

लिए आज भी फिरता हूँ

थोड़ा ये भी कम हो जाए

कुछ तो ऐसा कहने दो   ! ! 

मेरी कविता रहने दो  . . . 

— सागर तोमर 

सागर तोमर

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