लघुकथा – खिलौने
“आप क्या कर दिये,अन्नू रोये जा रही है। मारे हैं क्या?”
“मैं अपनी बेटी को मार सकता हूँ क्या? मैंने उसे छुआ तक नहीं।”
नूतन अंदर जाकर दो साल की बेटी अन्नू को लाकर पापा के सामने खड़ी कर दी। अन्नू जार जार रोये जा रही थी। नूतन के बहुत प्यार से पूछने पर वह रोते रोते अपने हाथ से इशारा की । हाथ के दिशा में अन्नू के साथ उसके मम्मी और पापा चल दिये अन्नू घर के एक कोने की ओर इशारा कर रोये जा रही थी।
नूतन ने पूछा ” यहाँ क्या था?”
“कुछ नहीं था। ढेला पत्थर था। उठा कर फेंक दिया।”
“यह अपने खिलौने के लिए रो रही है।”
“इतनी छोटी बात के लिए इतना रोना।चलो अन्नू रानी तुम्हें बहुत सारा खिलौने देता हूँ।” विनोद अलमारी खोल कर अपने बड़े बेटे के कई तरह के खिलौने उसे दिये । अन्नू सभी को गुस्से में इधर उधर फेंक दी और रोती रही ऐं ऐं ऐं
“क्या करें? इसे कोई पसंद नहीं आ रहा है।”
“इसे अपना हीं खिलौना चाहिए।”
“तो क्या करें? कुछ तो उपाय बताओ कि यह चुप हो जाय।”
“ले जाइये इसे उसी ढेला पत्थर के पास,शायद उसमें कुछ पसंद आ जाय।”
“चल।चल मेरी माँ उस डस्टबिन के पास।पता नहीं वह सब वहाँ है या कोई ले भागा।”
ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं वह रोये जा रही थी ।
“अब तो चुप हो जा।” वह उसे गोद में उठा कर उस डस्टबिन के पास ले गया ,जहाँ उसने उस कचड़े को फेंका था।वह कचड़े के उपर से धूल हटाया।उसमें टूटा हुआ मार्बल दिखाई दिया उसकी ओर ऊंगली दिखा कर अन्नू बोली “पापा, मम्मी;और ताली बजा कर खुशी में उछलने लगी।
उसने सारे पत्थर निकाल कर,झाड़ पोंछ कर अन्नू को दे दिया। अन्नू उसे पा कर ताली बजा कर खुशी में उछलने लगी।
— पंडित चन्द्रशेखर