शाख का पत्ता
मैं शाख का कोई पत्ता नही के हवायें उडा दे।
बहता दरिया हूँ, मेरी रवानी को रास्ता दे।
तुम्हीं तो हो मेरे ख्वाबों की परी,ये तय है,
लबों पे सजा ले,चाहे आँसू की मानिंद गिरा दे।
गीले बिस्तर पे भी सोई है वो कई कई रात,
वो माँ है पगले के आखिरी साँस तक दुआ दे।
राख की कब्रगाह में दफन है दहकते शोले,
न कर नादानी,खौफ खा,न आँचल से हवा दे।
अमीरों की हरेक शब है, दीवाली की मानिंद,
आओ तोड़ के सितारे, गरीबों के घर सजा दे।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”