चल रही शरद बयार है
ये कपकपाती ठंढ है,
चल रही शरद बयार है।
पूस की इस आधी रात में,
एक मजदूर है बैठा हुआ,
फटे चिथड़े में लिपटा हुआ।
पल-पल उसका गुजर रहा,
जैसे निशा नहीं युग हुआ।
डर है उसे यह रात न,
जान हर जाए कहीं।
आज ठंढ़ ऐसी लग रही,
जैसे बदन से बिजली सटी।
क्या करूं इस रात को,
इस काली नागिन की साथ को।
एक दिन की यह बात नहीं,
अभी तो पूस की शुरुआत है।
जाने न यह कैसे बीतेगा,
या जान ही लेकर जायेगा।
क्या करूं सिर्फ मेरा नहीं,
पूरे परिवार की यही हाल है।
भोजन तो जैसे-तैसे मिलता,
फिर रजाई मिले कहाँ सवाल है।
इस कपकपाती ठंढ से,
कौन बच पाएगा,
और कौन गुजर जायेगा।
पता नहीं कल कौन,
हमसे विदा हो जायेगा।
मैं जानता हूँ फिर कभी,
वह लौटकर न आयेगा।
यह पूस की रात ही नहीं,
यह तो गरीबों के लिए कहर है।
क्या करूंँ कैसे गुजारूंँ,
नागिन न सुनती बात है।
बर्फ सा बदन हुआ,
अभी तो बची आधी रात है।
रात भर जागे रहो,
नींद की कहाँ बात है।
रात ऐसे गुजर रहा,
जैसे मौत से संग्राम है।
कमों-बेस इस ठंढ़ में,
हर गरीब का यही हाल है।
ये बेरहम महल वाले क्या जाने,
यह भी तो किसी का लाल है।
यह मेहनतकश है कामचोर नहीं,
फिरभी ठंढ़ से इसका बुरा क्यों हाल है?
— अमरेन्द्र