राजनीति

हमारी राष्ट्रीयता का प्रतीक: श्रीराम जन्मभूमि मंदिर

श्रीराम जन्मभूमि मंदिर-बाबरी ढाँचा विवाद का हल खोजने की दिशा में किए गए प्रयासों से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि इस विवाद की जड़ें इतिहास में कितनी दूर तक फैली हुई हैं। इसकी मूल प्रेरणा कहाँ है, और इसका वास्तविक उद्देश्य क्या है?

दुर्भाग्य से आजकल हमारी सोच चुनाव और दलगत राजनीति से इस कदर बँध गई है कि हम उससे ऊपर उठकर किसी भी समस्या की ओर नहीं देख पा रहे हैं।  उदाहरणार्थ, हमारे बुद्धिजीवियों और राजनीतिज्ञों का एक बड़ा वर्ग अयोध्या आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद् और भारतीय जनता पार्टी की उपज मानता है और भारतीय जनता पार्टी की चुनावी रणनीति का अंग समझता है।

यह वर्ग इन प्रश्नों व इस तथ्य को बिल्कुल अनदेखा कर देता है कि- स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात्, जुलाई 1949 से दिसम्बर 1949 तक, मंदिर स्थापना के लिए जो उग्र आंदोलन चला था और जिसके परिणामस्वरूप वहाँ रामलला की अखंड पूजा-अर्चना प्रारम्भ हुई थी, उस समय कौन-सी चुनावी रणनीति काम कर रही थी?

इसके पूर्व सन् 1934 में हिन्दुओं की एक विशाल भीड़ ने बाबरी मस्जिद नामक इस ढाँचे को ध्वस्त करने का प्रयास किया था, जिसके फलस्वरूप इसे भारी क्षति पहुँची थी। उस समय की हिंदू पीढ़ी को कौन-सा राजनैतिक दल उकसा रहा था और कौन-सा चुनाव सामने था?

यदि और भी पीछे चलें तो सन् 1855 में अयोध्या में जो भीषण संघर्ष हुआ था, जिसमें नवाब वाजिदअली शाह के कथनानुसार बारह हजार से ज्यादा हिंदुओं ने तथाकथित बाबरी मस्जिद को घेर लिया था, तो उस समय कौन-सी चुनावी राजनीति काम कर रही थी?

सन् 1856 में अवध पर अंग्रेजों का राज्य स्थापित होने के तुरन्त बाद श्रीराम जन्मभूमि पर बने चबूतरे और तथाकथित मस्जिद के बीच एक बाड़ बनाने और मस्जिद में हिन्दुओं के प्रवेश पर रोक लगाने के उपरांत भी सन् 1858 में असगर अली नामक व्यक्ति को अंग्रेजों के दरबार में यह फरियाद क्यों करनी पड़ी कि हिन्दू हमें चैन से नहीं बैठने देते हैं। वे बार-बार आकर मस्जिद की दीवारों पर कोयले से ‘राम-राम’ लिख जाते हैं।

इसके पश्चात् हमें सन् 1860 से राम जन्म स्थान पर भव्य मंदिर बनाने की हिन्दू इच्छा आकाँक्षा के फलस्वरूप निरंतर मुकदमेबाजी होने के दस्तावेजों के प्रमाण प्राप्त होते हैं। इन दस्तावेजों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि- ‘यह इच्छा-आकाँक्षा केवल अयोध्या के निवासियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि लाहौर का गुरमुख सिंह पंजाबी भी मंदिर निर्माण के लिए पत्थर लेकर पहुँच जाता है।’

यह सम्पूर्ण भारत राष्ट्र की आत्मा ‘श्रीराम जी’ के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा और आस्था का प्रकटीकरण ही था…।

ब्रिटिश काल के तमाम दस्तावेजों को हमारे बुद्धिजीवियों तथा राजनीतिज्ञों ने यह कहकर रद्दी की टोकरी में फेंक दिया कि अयोध्या विवाद को अंग्रेजों ने ही अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अंतर्गत खड़ा किया था। राम जन्मस्थान पर बाबरी मस्जिद की कहानी को भी उन्होंने ही गढ़ा। सन् 1956 से पूर्व न यह कहानी थी, न कोई विवाद था।

किन्तु इस तर्क का उत्तर एक ऑस्ट्रियन जेसुईट पादरी जोसेफ टीफेनथेलर ने दे दिया। इस यूरोपीय पादरी ने सन् 1766 से 1771 तक अवध की यात्रा की थी। सन् 1785 में उसका यह यात्रावृत्त पेरिस में फ्रेंच भाषा में प्रकाशित हुआ था। इस यात्रावृत्त में उसने बाबर द्वारा जन्म-स्थान मंदिर के विध्वंस एवं मस्जिद-निर्माण की घटना का उल्लेख करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा कि ‘हिन्दुओं ने मस्जिद के बाहर मिट्टी का एक चबूतरा बना लिया है, जहाँ वे राम की पूजा करते हैं, प्रदक्षिणा करते हैं और साष्टांग प्रणाम करते हैं। प्रतिवर्ष रामनवमी पर यहाँ हजारों हिंदू एकत्र होते हैं।’

अब कोई पूछे कि सन् 1766-71 के दौरान अवध यात्रा में यह कहानी गढ़ने के पीछे पादरी जोसेफ टीफेनथेलर का क्या उद्देश्य हो सकता था? टीफेनथेलर द्वारा प्रस्तुत यह कहानी हमें सन् 1838 में प्रकाशित रावर्ट मार्टिन की पुस्तक एवं सन् 1854 में एडवर्ड थानेटन द्वारा प्रकाशित ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ गजेटियर में भी मिलती है।

सन् 1857 के पूर्व की इन साक्षियों पर भी प्रश्नचिह्न लग गया कि इनके लेखक यूरोपीय लोग हैं। किसी मुस्लिम या भारतीय लेखक की साक्षी सामने लाओ तो विचार करेंगे।

यहाँ अवध दरबार के काजी हाफिजउल्लाह की सन् 1822 में लिखित एक टिप्पणी मिल गई, जिसमें श्रीराम मंदिर को तोड़कर उस पर मस्जिद बनाने की बात साफ-साफ लिखी थी।

अंतिम नवाब वाजिद अली शाह ने ब्रिटिश रेजीडेंट जेम्स आउटरम के नाम 12 अगस्त, 1855 को लिखे गए अपने पत्र में लिखा था कि ‘सन् 1855 के ही समान 1735 में भी नवाब सादत अली खान के राज्यकाल में हिन्दुओं ने राम जन्मस्थान को वापस लेने का इतना ही बड़ा प्रयास किया था; किन्तु उस समय उस पर काबू पा लिया गया था।’

मराठा दस्तावेजों के अध्ययन से विदित हुआ कि सन् 1751 से 1759 तक मराठा नेतृत्व अवध के नवाबों पर अयोध्या, प्रयाग एवं वाराणसी के तीर्थ-स्थानों का अधिकार हिन्दुओं को सौंपने के लिए निरंतर दबाव डालता रहा। यदि सन् 1761 में पानीपत के मैदान में मराठा सेनाओं को पराजय का मुँह न देखना पड़ता तो पेशवा बालाजी बाजीराव के आदेशानुसार मराठा सेनाओं ने अवध पर आक्रमण करके इन तीनों स्थानो को कभी का मुक्त करा लिया होता।

ज्यादा गहरी खोज करने पर ये साक्षियाँ (प्रमाण) इससे भी पीछे जा सकती हैं; किन्तु सन् 1735 से अब तक जो इस विवाद की निरंतर साक्षियाँ उपलब्ध हैं, उनसे स्पष्ट है कि यह विवाद तात्कालिक चुनाव राजनीति की उपज कत्तई नहीं है। इनके पीछे हिन्दुओं की अनेक पीढ़ियों की प्रगाढ़ श्रद्धा व आकाँक्षा विद्यमान है, जिसका प्रतिनिधित्व समय-समय पर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों एवं संगठनों ने किया है।

यदि यह श्रद्धा व आकाँक्षा हिन्दू मानस में इतनी पुरानी एवं गहरी न होती- तो कोई भी संगठन अपनी चुनाव राजनीति के लिए लाख प्रयास करके भी वह हज़ारों लोगों की चमत्कारिक उपस्थिति का ऐसा विहंगम दृश्य उत्पन्न नहीं कर पाता, जो 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या में दिखाई दिया था 

क्या कोई कल्पना कर सकता था कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की इस घोषणा को कि *’उत्तर प्रदेश सरकार की व्यूह-रचना को भेदकर कोई परिंदा भी अयोध्या में प्रवेश नहीं कर पाएगा’, इसको चुनौती देने के लिए तत्समय पचहत्तर हजार से अधिक युवा, वृद्ध व महिलाएँ अयोध्या में चमत्कारिक रूप से प्रकट हो जाएँगे, और उत्तर प्रदेश सरकार की बंदूकों के सामने साहसपूर्वक अपनी छातियाँ खोल देंगे।

इस चमत्कारी घटना के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए 30 अक्टूबर, 1990 के प्रात:काल के अखबारों पर दृष्टिपात करना उचित रहेगा, जिनमें प्रत्येक संवाददाता ने लिखा था कि ‘अयोध्या में सन्नाटा छाया हुआ है। किसी कारसेवक के वहाँ दर्शन नहीं हो रहे हैं।’ परन्तु दोपहर तक सारा दृश्य व नक्शा ही बदल गया..। अब बड़ा प्रश्न उठता है कि इस बलिदानी उन्माद के पीछे प्रेरणा क्या है?

इस प्रश्न का उत्तर वे लोग नहीं खोज सकते जो भारतीय इतिहास का आरम्भ बिंदु 15 अगस्त,1947 या सन् 1757 के प्लासी युद्ध या सन् 1526 में मुगल साम्राज्य अथवा सन् 1192 में दिल्ली सल्तनत की स्थापना में देखते हैं।

 ये लोग यह भूल जाते हैं कि भारतीय लोगों की प्रगाढ़ श्रद्धा की जड़ें इससे बहुत पूर्व की, एक लम्बी ऐतिहासिक यात्रा में विद्यमान हैं। ‘राम’ इस ऐतिहासिक यात्रा के प्रतीक पुरुष हैं। इस ऐतिहासिक यात्रा का चरित्र साम्प्रदायिक (मजहबी) कत्तई नहीं है। इस यात्रा की प्रेरणा साम्प्रदायिक (मजहबी) एकरूपता में नहीं, बल्कि उपासना-स्वातंत्र्य एवं साम्प्रदायिक (मजहबी) वैविध्य में रही है। विविधता में एकता ही इसकी मूल निष्ठा रही है।

हम इस एतिहासिक यात्रा से अभी भी पूरे तन-प्राण से जुड़े हैं, और ‘विविधता में एकता के बीज-दर्शन’ पर सहज आस्था रखने वाले विशाल समाज को ही आज ‘हिन्दू’ नाम से पहचाना जाता है।

— बालभास्कर मिश्र

*बाल भास्कर मिश्र

पता- बाल भाष्कर मिश्र "भारत" ग्राम व पोस्ट- कल्यानमल , जिला - हरदोई पिन- 241304 मो. 7860455047