गीत
समय का यह नाग हर दिन डस रहा है ,
देख लो मैं स्याह होता जा रहा हूँ।
हर तरफ से चल रही पछुआ हवायें ।
नियति घन बरसे बिना ही लौट जायें।
फूल जिनकी राह में बोता रहा मै ,
शूल बनकर हैं वही हर बार आये ।
मील के पत्थर हुए सब मीत परिजन,
दौड़ता मैं राह होता जा रहा हूँ ।
समय का यह नाग……………….
समय से पहले बुढ़ापा आ रहा है ।
सोच का कीड़ा हृदय को खा रहा है।
रोज जीवन लड़ रहा नैराश्य तम से,
श्वास समिधाओं को यह सुलगा रहा है,
चाहता हूँ खुद को मैंं वरदान करना ,
क्या करूं ?, पर आह होता जा रहा हूँ ।
समय का यह नाग…………….
मुझे कुछ अज्ञात भय हर दिन डराते।
कुछ विषैले स्वप्न नींदे तोड़ जाते ।
और कुछ किस्से कसैले ,गूंजते हैं –
कान के परदों में हैं कांटे चुभाते ।
चाहता था मुक्त होना चाहतों से ,
पर अधूरी चाह होता जा रहा हूँ ।
समय का यह नाग ……….
— डा.दिवाकर दत्त त्रिपाठी