उस जीवन का कोई अर्थ नहीं
वो विज्ञ होकर भी मूर्ख ही है,
जो तरुवर सा है झुका नहीं।
उस जीवन का कोई अर्थ नहीं,
जो औरों के काम आता ही नहीं।
सागर है बहुत विशाल सही,
पर पंछी का प्यास हरता ही नहीं।
उससे अच्छा सरिता ही सही,
जिससे पंछी का प्यास मिटे।
वह फूल भला किस काम का है,
जिसपर न किसी की नजर पड़ी।
वो युवा है किस काम का है,
जिसमें परिवर्तन की चाह नहीं।
वो चादर भी किस काम का है,
जिससे ठंढ मिटता ही नहीं।
वो मानव भला क्या मानव है,
जो औरों के लिए जीता ही नहीं।
सोने की सुराही से क्या फायदा,
प्यास मिट्टी की सुराही ही हरता है।
हीरा-मोती की चमक से क्या होगा,
पेट गेहूंँ के रोटी से ही भरता है।
वो इंसान भला किस काम का है,
जो विभेद पालकर जीता है।
उससे अच्छी तो नन्ही चींटी है,
जो झुण्ड बनाकर रहती है।
— अमरेन्द्र