मोहब्बत सप्ताह पे विशेष
बात उन दिनों की है, शायद 2003, जब मेरे पास नोकिया का एक हैंडसेट हुआ करता था, सेट का नाम याद नही है, शायद 1110, हाँ उसमे साँप वाला गेम हुआ करता था जो खा खा के मोटा होता जाता था और अंत में इतना लंबा हो जाता खुद की मार के मर जाता था। इनकमिंग के भी पैसे लगते थे। किसी से मिलने का नियत जगह तय होता था तो बस सामने वाले को मिस कॉल मार दो तो वह उस नियत जगह पहुच जाता था क्योंकि कालिंग का रेट भी ज्यादा था तो मिस कॉल के मूक भाषा से ही आधे से ज्यादा बात हो जाती थी। उस जमाने की मिस कॉल की भासा आज के व्हाट्स एप वीडियो कॉल से ज्यादा असरकारक थी।
उसी साल जब फागुन चढ़ा तो उसका असर मेरे ऊपर भी हुआ, और मेरे साथ एक दोस्त के ऊपर भी। उस समय आज का जमाना नही था कि नम्बर पता किया ओर हाई हेलो चालू, ओयो आदि का नामो निशान नही था , जो बहुत भाग्यशाली हुआ वह किसी झाड़ी,खेत या खंडहर आदि को चादर, शाल से अपग्रेड करके ओयो का काम निकाल लिया करता था, हिम्मते मर्दा तो मद्ददे खुदा, खुदा वैसे भी इन्ही सब कामो के लिए बना है, ऐसा लड़कों का मानना था।
अस्तु, उस जमाने मे गिरलफ्रेंड पाना पानीपत का युद्ध जीतना माना जाता था। क्योंकि खुलेपन का अभाव, थोड़ा ईगो और प्रेस्टिज की बातें थी तो हम जैसो से ये दूर दूर की कौड़ी थी, उस जमाने मे निशाने कई किलोमीटर दूर रह के ये वाली तेरी वो वाली मेरी कह के फाइनल हो जाता था मोहब्बत, भले मोहब्बत किसी और कि ही क्यों न हो। लड़के आपस मे लाठी डंडा भी चला लेते और दोनों पार्टी डॉक्टर के पास जा दवा करती, और उसी समय सामने वाली पार्टी किसी और साथ गोलगप्पे खा रही होती, पता चलने पे दोनो पार्टी साथ मे दारू पी गम गलत कर रही होती साथ अमुक लड़के को “पेलने” का प्लान बनाती।
लेकिन इस से साल तय हुआ कि एक एक तो होनी चाहिए, तो क्या किया जाए, मोबाइल उस समय भी दुर्लभ चीज हुआ करती थी, जरूरी नही की सामने वाली पार्टी के पास भी हो। और हो भी तो उसका इस्तमाल कैसे हो ये भी समस्या थी। और पास जा के कुछ कहने की हिम्मत हम जैसे शरीफ लड़को की नही थी, मुह पर थूक पड़ने की सम्भवना भी बनी ही रहती थी क्योंकि ऐसे किस्से कैम्पस में आम थे कि फला लड़की ने फले लड़के के मुह पे शाहरुख खान स्टाइल थूक दिया। जब वो फूल ले के गया, या उसने दूर से हाई हेलो किया तो सामने से थप्पड़ या सैंडिल आदि का प्रदर्शन हुआ, ये किस्से सुन हिम्मत जवाब दे दिया करती थी। काशी विश्वनाथ से ले के संकट मोचन के दरबार मे तो अर्जी थी ही साथ मे त्रिवेणी होस्टल के पीछे वाले लोकल देवता गुला बाबा के दरबार मे रोज हाजिरी लगती की इस इस बार कुछ हो जाये।
व्हाट्सएप, स्नैपचैट विहीन जमाने मे तय हुआ कि याहू मैसेंजर की शरण ली जाए। कोई पटी तो पटी नही तो पहचान गुप्त, शर्मिनदगी नही उठानी पड़ेगी। उन दिनों ईमेल आईडी रखना प्रेस्टिज की बात हुआ करती थी क्योंकि डाक और अन्तर्देशी का जमाना खत्म नही हुआ था बल्कि कगार पे था।
थूक, थप्पड़, सैंडिल आदि के खतरों से दूर, किसी सायबर कैफे में 20 रुपये घण्टा दे बनारस से वैंकुवर और कानपुर से ले के न्यूयार्क तक के रूम में घण्टो जाल बिछा के लड़के बैठे रहते। वकुल्बरी समझने में ही 2 -3 दिन निकल गए, जैसे ASL, B , आदि। ऑनलाइन छिनरयी की अलग ही भाषा होती है, बेहद कूट और मारक, “का हो देबू” पूछने के लिए “do you have boy freind”
जैसी भाषा इस्तमाल की जाती थी, खैर ये वाला तो आज भी प्रचलन में हैं।
तो कई दिन के भगीरथ परिश्रम से किसी रूम से एक पकड़ में आई। बातचीत आगे बढ़ी, तो पूछा कि मोबाइल है? उधर से हाँ हुआ। लेकिन उस चिचरौनी ने नम्बर न दिया, बल्कि मेरा माँगा, तो नम्बर मैंने डर के मारे अपनी दोस्त का दे दिया जो मेरे साथ पढ़ती थी, वो इसलिए कि उसके पिता जी पुलिस अफसर थे और कुछ गड़बड़ होगा तो सम्हाल लेंगे, इनकेस सामने वाली नीतू की जगह नखड़ू हुआ तो। तो इस तरह धोखाधड़ी के बदले का इंतजाम कर लिया था मैंने। लेकिन आशा की किरण भी थी कि यदि नखड़ू न हुआ तो और बात बन गई तो उस परिस्थिति में क्या क्या हो सकता है।
मैंने भी जितना हो सका तमाम पार्क का कोना, झाड़ियां, खण्डहर आदि चिन्हित कर लिए। ऐसे अन्वेषणों में हफ्ते गुजर गए, अब वो याहू पे भी न आती थी। उसकी और खण्डहरों की कल्पना में दिन गुजरने लगे। ये फागुन बीत गया पतझड़ की तरह आशा भी झड़ गयी। फिर अचानक एक दिन मेरी दोस्त बोलती है कि एक लड़की का फोन आया था तुम्हारे लिए,
तो तुमने बताया क्यों नही ?
मुझे लगा उसने तुम्हे फोन किया होगा..
और मैं सर पकड़ के बैठ गया, वो नखड़ू नही थी। पता नही अब वो कैसी होगी, कहाँ होगी ? किसके साथ होगी ? अब तो उसके दो चार बच्चे भी हो गए होंगे..
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— कमल कुमार सिंह