बाल कहानी – ज़िद नहीं करूँगा
शुभम आज बहुत खुश था। और क्यों न हो! आज पापा उसको घूमाने लेकर जाने वाले थे। वह घूमने जाने के लिए बेहद उत्साहित हो रहा था। आज वह सुबह जल्दी उठ गया, वरना छुट्टी वाले दिन वह देर तक बिस्तर पर पड़ा रहता है। उसने अपने नित्य-कर्म जल्दी-जल्दी निबटा लिए और दौड़ते हुए डाइनिंग टेबिल पर आकर बैठ गया और बोला, “मम्मा, जल्दी से नाश्ता दे दो। ज़ोरों की भूख लग रही है।”
तभी कीचन से उसकी मम्मी एक प्लेट में गरम-गरम आलू के पराठे लेकर आयीं और प्लेट में डालने लगीं। उन्होंने शुभम की ओर देखते हुए पूछा, “आज क्या बात है? तुम अपने आप नाश्ते के टेबिल पर आ गए। लग रहा है कि आज जैसे सूरज पश्चिम से उगा है!”
शुभम के पापा जो चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अख़बार पढ़ रहे थे ने अपनी पत्नी के समर्थन में कहा, “सच कह रही हो। आज तो अपना लाड़ला राजा बेटा बन गया है। पर आज इसने ऐसा इसलिए किया है कि नाश्ता करने के बाद मैं इसको एक जगह लेकर जाने वाला हूँ।”
“अच्छा!ऐसा क्या? कहाँ लेकर जाने वाले हो मुझको भी तो बताओ।” मम्मी ने कहा।
“यह तो अभी सरप्राइज है। शाम को शुभम ही बता देगा कि आज उसने अपना दिन कहाँ और कैसे बिताया?”
नाश्ता करने के बाद शुभम के पापा अपनी कार की ओर चल पड़े। उत्साहित शुभम उनके पीछे-पीछे चल पड़ा।
सड़क पर कार हवा से बातें कर रही थी। सिग्नल्स पर कार रूक रही थी। शुभम कार की खिड़की से बाहर के नज़ारों का आनंद ले रहा था। कुछ ही देर में उसके पापा ने एक बिल्डिंग के भीतर अपनी कार से प्रवेश किया। उन्होंने पार्किंग की जगह पर कार को पार्क किया और शुभम का हाथ पकड़कर वह उस बिल्डिंग के मेन गेट तक पहुँच गए। शुभम ने देखा कि बिल्डिंग के ऊपर ‘ममतामयी घर’ लिखा हुआ था। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था कि यह कौनसी जगह है?
वह चुपचाप पापा का हाथ पकड़े चलता गया। भीतर पहुँचे तो उसने देखा कि सामने ही एक ऑफिस बनी हुई है जहाँ कुछ लोग बैठकर अपना काम कर रहे हैं। ऑफिस के बाहर कुछ बेंचेस बनी हुई हैं। शुभम को एक बैंच पर बैठने को बोलकर पापा ऑफिस के अंदर गए। शुभम ने देखा कि उसके पापा किसी अंकल से कुछ बातें कर रहे हैं। कुछ ही देर में उन अंकल ने किसी को बुलाया और उनको शुभम के पापा के साथ बाहर भेज दिया। बाहर आते ही पापा ने बताया, “शुभम! यह विनोद अंकल हैं। यह यहाँ काम करते हैं। आओ अब तुमको यहाँ रहने वाले बच्चों से मिलवाते हैं।”
“बच्चे यहाँ क्यों रहते हैं? अपने मम्मी-पापा के साथ क्यों नहीं रहते? यह कौनसी जगह है पापा?”
“बेटा, यह अनाथाश्रम है। यहाँ जो बच्चे रहते हैं या तो उनके मम्मी-पापा भगवान के घर चले गए हैं। और कुछ गरीब लोग जो अपने बच्चों को पाल नहीं सकते, पढा-लिखा नहीं सकते ऐसे लोग भी अपने बच्चों को यहाँ चुपचाप छोड़ जाते हैं।”
“तो क्या ये सब यहीं रहते हैं?”
“हाँ, बेटा। ये सब यहीं रहते हैं। यहीं पढ़ते हैं, खेलते हैं, खाते-पीते हैं और यहीं सो जाते हैं। अब यही इनका घर है और हम सब लोग इनकी देखभाल करते हैं। “
शुभम ने देखा कि एक कमरे में बच्चे ज़मीन पर बैठकर पढ़-लिख रहे थे। उनके पास एक बैग रखा था, जिसमें से वह अपनी बुक्स निकाल रहे थे और रख रहे थे। उसको अपना स्टडी टेबल याद आ गया। उसको याद आया कि कैसे वह अपनी बुक्स को कमरे में फैलाकर रखता है।
दूसरे कमरे में उसने देखा कि बच्चे एक ही खिलौने को लेकर लड़-झगड़ रहे थे। उसने पूछा, “क्या इन बच्चों के पास और खिलौने नहीं है?”
तब विनोद अंकल ने कहा, “इनके पास कुछ ही खिलौने हैं। जब लोग खिलौने डोनेट करते हैं, तब फिर इनके पास कुछ खिलौने या गेम्स आ जाते हैं। वरना हम लोगों में से जिनके घर में पुराने खिलौने या गेम्स होते हैं तो अपनी इच्छा से यहाँ इनको दे देते हैं।
यह सब देखकर शुभम उदास हो गया। इतने में ही किसीने आकर कहा कि सर ने सब को बड़े वाले हॉल में बुलाया है। आप लोग भी चलिए। सब लोग हॉल में पहुँचे। वहाँ सब बच्चों को एक साथ लंच के लिए बिठाया गया। विनोद अंकल ने बताया कि आज का लंच शुभम के पापा की तरफ से था। शुभम ने देखा कि बच्चों ने खाने से पहले हाथ जोड़कर प्रार्थना करी और फिर भोजन की थाली को प्रणाम करके सब ने खाना खाया। उसने किसी भी बच्चे को मैगी या पिज़्ज़ा या अन्य किसी चीज के लिये ज़िद करते नहीं देखा।
खाना-पीना खाकर सब बच्चे अपने-अपने कमरे में चले गए। बड़े हॉल में आते हुए और लंच के बाद अपने कमरों में जाते समय सब लाइन में जा रहे थे।
कुछ देर इधर-उधर घूमकर, बच्चों से बात करने के उपरांत शुभम के पापा ने कहा, “अब घर चले बेटा?”
शुभम ने हाँ में मुंडी हिला दी और पापा के पीछे-पीछे कार की ओर चल पड़ा। उसने जाने से पहले विनोद अंकल से और ऑफिस में काम करने वालों से थैंक यू बोला। सब ने उसको प्यार से वहाँ पुनः आने को कहा। उसने अपने पापा की ओर देखा। तो पापा ने कहा, “हम यहाँ आयेंगे न शुभम?” शुभम कुछ न बोल पाया। पर उसकी नम आँखें बोल रही थीं। उसने वहाँ कुछ बच्चों से दोस्ती कर ली थी और उनसे कहा कि वह उनके साथ खेलने आएगा।
घर लौटते समय शुभम चुप रहा। घर पहुँचते ही उसने अपनी मम्मी को पकड़ लिया और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। और रोते हुए ही उसने कहा, “मम्मी, अब से आप जो बनाओगी मैं सब खाऊँगा। मैगी- नूडल्स जैसी चीजों की ज़िद नहीं करूँगा।”
मम्मी ने प्यार से उसको दुलारा और पूछा, “ऐसा क्या हुआ बेटा जो तुम इतना रो रहे हो? कहाँ गए थे?और अचानक से ऐसा क्या हो गया है तुमको?”
“अनाथाश्रम!” शुभम के पापा ने कहा।
थोड़ी देर के बाद शुभम उठा और अपने कमरे में चला गया। वहाँ उसने अपने बिखरे हुए सामान को समेटा और कमरा व्यवस्थित किया। उसके बाद उसने अपने मम्मी-पापा को वहाँ आने को कहा। कमरे की काया पलट चुकी थी। साफ-सुथरे कमरे को देखकर दोनों ने उसको प्यार किया तो उसने कहा, “अब से मैं अपना कमरा ऐसा ही रखूँगा।” फिर उसने अपने पापा की ओर देखते हुए पूछा, “पापा, क्या मैं अपनी कुछ पुरानी गेम्स और खिलौने उन बच्चों को दे सकता हूँ?”
बेटे का यह परिवर्तित रूप देखकर उसके मम्मी-पापा की ख़ुशी का कोई ठिकाना न रहा। और उसके पापा ने कहा, “हाँ, हाँ क्यों नहीं?बिलकुल दे सकते हो? हम अगले सन्डे ही वहाँ चलेंगे।”
शुभम ख़ुशी के मारे उछल पड़ा और बोला, “पापा, हम हर संडे चले तो?”
उसके मम्मी-पापा उसकी इस बात पर हँस दिए।
शुभम ने कहा, “पापा, थैंक यू वेरी मच। मुझको समझ में आ गया है कि आप मुझको वहॉं क्यों लेकर गए थे। आप मुझको यही समझाना चाहते थे न कि हमारे पास जो भी है जितना भी है उसमें सन्तोष करना चाहिये। क्योंकि कई बच्चों के पास वो भी नहीं होता।”
शुभम के पापा ने कहा, “हाँ बेटा। तुम दिन-प्रति-दिन ज़िद्दी होते जा रहे हो। और हम नहीं चाहते थे कि तुम ऐसे गन्दे बच्चे बनो।”
“मम्मी-पापा! आई प्रोमिस यू ढैत अब से मैं ज़िद नहीं करूंगा। और अब से मैं गुड बॉय बनकर दिखाऊँगा।”
यह सुनकर दोनों ने उसको बहुत सारा प्यार किया।
— कल्पना भट्ट