एक प्रश्नचिह्न:
यथार्थ में नारी सशक्तिकरण आज भी अधूरा सा ख़्वाब है ! यथार्थ यही है आप माने या न माने किंतु आज भी स्थिति में क्या बदलाव हम उतना देख पा रहे हैं जितना कि हम नारेबाज़ी करते हैं ? जितने कि हम संस्थाएँ बनाते हैं ? जितने कि हम सभागारों में भाषण देते हैं ? नारी कभी कमजोर न थी सदियों पहले भी और न आज हो सकती है । पुरुष में जब जब प्रथाओं के नाम पर सामाजिक कौड़े क़ानून के नाम पर उसे छला रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई, पन्ना धाय हो वो नारियाँ रहीं जिन्होंने साबित किया कि ‘ हे दुराचारी, व्यभिचारी, अत्याचारी पुरुष देख जब मैं अम्बा से काली बनती हूँ तो क्या होता है ? सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने प्रति हो रहे असमानता के दुर्व्यवहार के प्रति वह लड़-लड़ कर संघर्ष करती आ रही है ।
युग बदलते रहे , सदियाँ बदलती जा रहीं किंतु हर बार की तरह आज भी उसकी लड़ाई ख़त्म नहीं हुई । ज्यों के त्यों वही मुद्दे,वही विषय बल्कि नए-नए क़िस्से जुड़ते जा रहे हैं उस पर कुठाराघात के ! आख़िर क्यों नित नए हादसे उसके साथ जुड़ते जा रहे हैं ? इनका अंत क्यों नहीं हो रहा? क्योंकि वो हमारी सोच को बदलने के प्रयास में लड़ रही है और हम हैं की अपनी दक़ियानूसी सोच से पीछा ही नहीं छुड़ा पा रहे ।समाज के पुरुष वर्ग को वाह कभी नीचा नहीं दिखाना चाहती बस वो चाहती है सम्मान जो एक पुरुष को मिलता है । वह पुरुष के संग हर क्षेत्र में कंधा मिलाकर खड़ी नज़र आती है जीवन के हर क्षेत्र में सम्पूर्ण समर्पण का भाव रखती है, हर रूप को स्नेहपूर्वक निभाती है । जैसे पुरुष अपना पुरुषत्व दिखा उसकी अस्मिता तार-यार करता रहता है,एसिड अटेक करता है, म जाने और क्या क्या घरेलू हिंसा के घिनौने खेल खेलता है ! स्वयं में बलवान बनता है । अपने पुरुष होने पर गुमान करता है इतना तो कहाँ रही आज बराबरी पुरुष और स्त्री में, कहाँ है नारों की सार्थकता, सभागारों के अनगिनत नारी सशक्तिकरण के कार्यक्रम और भाषण !!
मूर्ख बना रहे हम खुद को, छल रहे खुद को क्योंकि जैसे ही कोई नारी अपनी लड़ाई शुरू करती है यही दक़ियानूसी समाज गिद्द की तरह मारते स्त्रीत्व का तमाशा देख उसको ही नोचने-खाने आ जाता है । यदि उसकी व्यथ को सुना और समझा जाए, सही तरीक़े से ऐक्शन लिए जाएँ , उसको समस्या की रह तक जाया जाए तभी इंसाफ़ होगा न या कि बेवजह या तो सड़क पर तमाशबीन बन जाओगे, या घूरती आँखों से इल्ज़ाम लगाने वाले पड़ोसी बन जाओगे या कोई कसर न रहे तो मुँह से भी अनाप-शनाप बकैती शुरू कर दोगे – इसके तो लक्षण ही ऐसे थे ……….. तभी रेप हुआ, तभी तलाक़ हुआ, तभी ये हुआ और तभी वो हुआ । न जाने क्या क्या कहोगे और छोड़ उसको उसको वेदना में चल दोगे अपनी रह मुँह टेढ़ा कर ।
हर वर्ष वोमेंस डे मन रहा है और मनता रहेगा,जो चल रहा है वो चलता रहेगा भैया नारी का तन-मन यूँ ही जीर्ण-शीर्ण रहेगा जब तक कि वो स्वयं बिना किसी के लांछनों की परवाह किए जीना,लड़ना और बढ़ना नहीं सीख लेती । हर बात की एक सीमा होती है और आज के वक्त तक पुरुष इतनी प्रगतिशील बुलंद जज़्बे वाली नारी को भी यदि समझ नहीं पा रहा और उसको तुच्छ समझता है तो कहाँ है नारी सशक्तिकरण ज़रा सोचिएगा ? कि अगले वर्ष के नारी दिवस तक आप खुद क्या अपने घरों से शुरू कर पाएँगे ?अपनी बहन, बेटी,माँ,पत्नी की आँखों में वो आत्मविश्वास ला पाएँगे कि उन्हें महसूस हो कि दिल में कहीं डर नहीं है, ऐसा दर्द नहीं है जो घर में घर के पुरुष से ही साँझा न किया का सके । ये ज़िम्मेदारी बड़ी नहीं उतनी,जितनी कि नारी की जिम्मेदारियाँ जिनके नीचे तुमने उसे दबा दिया है ।
अगर घर से ही पुरुष ने शुरुआत कर दी तो क्या मजाल किसी की कि कोई उसका मान-सम्मान हर सके क्योंकि उसको कद्र होगी तो वो सड़क पर भी पराई औरत को सम्मान देने का प्रयास करेगा और तब होगी नारी की अस्मिता और सम्मान के जंग ख़त्म अन्यथा आए दिन हैवानियत तो अपना नाच दिखा ही देती है और बिखर जाता है फिर एक सुकोमल का जीवन मरुस्थल की रेत सा!
— भावना अरोड़ा ‘मिलन